सोमवार, 31 अगस्त 2015

दिविक रमेश की कविताएं


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


गुलाम देश का मजदूर गीत

(खुली आँखों में आकाश से)


एक और दिन बीता
बीत क्या
जीता है पहाड़-सा

अब
सो जाएँगे
थककर।

टूटी देह की
यह फूटी बीन-सी
कोई और बजाए
तो बजा ले
हम क्या गाएँ ?

हम तो
सो जाएँगे
थककर।

कल फिर चढ़ना है
कल फिर जीना है
जाने कैसा हो पहाड़ ?

फिर उतरेंगे

बस यूँ ही
अपने तो
दिन बीतेंगे।

सच में तो
ज़िन्दगी भर हम
अपना या औरों का
पहाड़ ही ढोते हैं।

बस
ढोते
रहते हैं।

सुना है
हमारी मेहनत के गीत
कुछ निठल्ले तक गाते हैं।

सुना है
हमारे भविष्य की कल्पना में
कुछ जन
कराहते हैं।

कुछ तो
जाने किस उत्साह में
हमारे वर्तमान ही को
हमसे झुठलाते हैं।

हमारा भविष्य तो
खुद
हमारा बच्चा भी नहीं होता।

पेट में ही जो
ढोने लगता हो ईंटें।
पेट में ही जो
मथने लगता हो गारा।
पेट में ही जिसको
सिखा दिया हो
सलाम बजाना।
पहले ही दिन से
खुद जिसने
शुरू कर दिया हो
कमाना।

कोई स्वप्न गुनगुनाए
तो गुनगुना ले
वर्ना
हमारा बच्चा भी
हमारा भविष्य
नहीं होता।

होता होगा
होगा किसी का भविष्य
किसी के देश का
किसी के समाज का
लेकिन
हमारा नहीं होता।

होगा भी कैसे
हमारी परम्परा में
खुद हम कभी
अपना
भविष्य नहीं हुए।

हम तो बस
सीने पर रख
महान उपदेशों को
सो जाते हैं
थककर।

इतना ही क्या
काफी नहीं
कि एक दिन और
बीत गया

पहाड़-सा।

अब रात आयी है
सुख भरी रात
कौन गंवाए इसे।

सुबह तो ससुरी
रोज
भूख ही लगाती है
क्यों करें प्यार
फिर ऐसी सुबह से ?

कैसे थिरक उठे पाँव
कैसे गाएँ ये कंठ
कैसे मनाएँ खुशियाँ
सरकारी उत्सवों में
नाचते

नचभैयों-से।

कहाँ है आजाद
यह गुलाम देश
और कहाँ हैं आजाद


ये हम?


आजादी की परख
देश की सुबह से होती है
और सुबह तो हर रोज
काम पर

भूखा ही भगाती है।

पर चलो
एक दिन और बीता
बीता क्या
जीता है पहाड़-सा

अब
सो जाएँगे
थककर।



हर कहीं सब कहीं


देख लीजिए न नरेन्द्र जी को
हैं न ’कहीं‘।
और राजेश जी को भी
कैसे तो विराजमान हैं वे भी ’कहीं‘।
इन्हें ही देख लीजिए
और उन्हें भी
तभी तो छाए हैं न अखबार के कॉलम से।

देखिए तो इनके चेहरे
इन्हें क्या परवाह उनकी
और अब देख लीजिए उनके भी चेहरे
उन्हीं का कौन बाँध सकता है घर घाम में।

अपनी अपनी हवा है
अपना अपना बदन
अपना अपना आकार है
अपना अपना समाचार

खबरदार
खबरदार
खबरदार

जान लेना चाहिए
कि हर बड़ा है वही
जो दिखता है ’कहीं‘।
और एक आप हैं मियाँ दिविक
जो हैं ही नहीं कहीं

न कोई अपनी हवा है
न बदन ही
न कोई अपना आकार है
न समाचार ही।



हक की तहकीकात

(खुली आँखों में आकाश से)



यही है वह लड़का
आवारा

जाने कैसे हैं माँ-बाप
जना और छोड़ दिया।
यही है
खतरनाक निशान को
छूकर भी
ज़िन्दा है।

तहकीकात हुई,
लोगों ने पाया
कि यह लड़का
’अनपढ और गंवार है‘
या यूँ कह लें
’नथिया का बेटा चमार है।‘

तहकीकात हुई
लोगों ने पाया
कि इसके खानदान में
जो भी
खतरों से खेला
नहीं बचा
यह पहला है।

तहकीकात हुई
लोगों ने पाया
यह वही लड़का है
चौधरी के खेत में
जो जबरन घुसा था।

यह वही लड़का है
जो गांव के कुएँ की
जगत पर चढ़ा थ।

यह वही लड़का है
जिसने
हरीराम पंडत की
लांगड़ खोल
मखौल उड़ाया था

घोषणा हुई
’यह लड़का खतरनाक है।‘

तहकीकात
एक और भी हुई

पता चला
कि बहुत से खतरनाक निशान
खेत में गड़े डरावों से
महज निशान होते हैं।



उसने कहा था



मेरे निकट आओ, मेरी महक से महको
और सूँघो
यह किसी फूल या खुशबू ने नहीं
उसने कहा था।

मेरे निकट आओ, मेरा ताप तापो
और सेंको
यह किसी अग्नि या सूर्य ने नहीं
उसने कहा था।

मेरे निकट आओ, मेरी ठंड से शीतल हो जाओ
और ठंडाओ
यह किसी जल या पर्वती हवा ने नहीं
उसने कहा था।

वह कोई रहस्य भी नहीं था
एक मिलना भर था
कुछ ईमानदार क्षणों में खुद से
जो था असल में
रहस्य ही।

वह जो बहुत उजागर है
गठरियों में बाँध उसे
कितना रहस्य बनाए रखते हैं हम।

शायद सोचना चाहिए मुझे
कि उसे
कहना क्यों पड़ा?



जाइये-आइये


हाँ हमीं ने बुलाया था न आपको
आपके मुद्दों पर विचार के लिए
पर अब हम नहीं करेंगे न
नहीं करेंगे माने नहीं करेंगे, जाइये।

ऐ न्यायप्रिय जी
सब हमारी मर्जी पर ही चलता है न
कारण-फारण जानकर क्या कीजिएगा
क्या उखाड़ लेंगे आप हमारा
कह दिया न हमारी मर्जी! जाइये।

अरे हे पी.ए. साहिब, तनिक सुनो तो
समझाओ इन्हें। आहाहाहाहाहाहा......
कल प्रैस में मर्जी
और अगले दिन छपवा दीजिएगा न मजबूरी।
आहाहाहाहाहाहा......

अरे! अरे! आप!
आप यहाँ
बुला लिया होता न दास को।

ऐ पी.ए. साहब!

’माफ कीजिए

यह ससुर लांगड़ भी
तैयार रहती है खुलने को
खोले रहूँ
या बाँध लूँ।
हमारी चरण वन्दना तो लीजिए न!
आप हैं तो हम हैं न! आइये।

देखिए न
कितना कुछ तो कह रही हैं आपकी आँखें
हमारे पक्ष में। आइये।

ऐ पी.ए. साहिब
भेजिए न। तनिक जल्दी कीजिए भाई।’
आइये!



 दिविक रमेश



  • दिविक रमेश (वास्तविक नाम - रमेश शर्मा)
  • जन्म :  १९४६, गाँव किराड़ी, दिल्ली।
  • शिक्षा :  एम.ए. (हिन्दी), पी-एच.डी. (दिल्ली विश्वविद्यालय)
  • संप्रति :  प्राचार्य, मोतीलाल नेहरू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, नई दिल्ली
  • पुरस्कार/सम्मान : गिरिजाकुमार माथुर स्मृति पुरस्कार, १९९७
  • सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, १९८४
  • दिल्ली हिन्दी अकादमी का साहित्यिक कृति पुरस्कार, १९८३
  • दिल्ली हिन्दी अकादमी का साहित्यकार सम्मान २००३-२००४
  • एन.सी.ई.आर.टी. का राष्ट्रीय बाल-साहित्य पुरस्कार, १९८९
  • दिल्ली हिन्दी अकादमी का बाल-साहित्य पुरस्कार, १९८७
  • भारतीय बाल-कल्याण संस्थान, कानपुर का सम्मान १९९१
  • बालकनजी बारी इंटरनेशनल का राष्ट्रीय नेहरू बाल साहित्य एवार्ड १९९२
  • इंडो-रशियन लिटरेरी कल्ब, नई दिल्ली का सम्मान १९९५
  • कोरियाई दूतावास से प्रशंसा-पत्र २००१बंग नागरी प्राचारिणी सभा का पत्रकार शिरोमणि सम्मान १९७६ में।
  • प्रकाशित कृतियाँ :कविताः 'रास्ते के बीच', 'खुली आंखों में आकाश', 'हल्दी-चावल और अन्य कविताएं', 'छोटा-सा हस्तक्षेप', 'फूल तब भी खिला होता' (कविता-संग्रह)। 'खण्ड-खण्ड अग्नि' (काव्य-नाटक)। 'फेदर' (अंग्रेजी में अनूदित कविताएं)। 'से दल अइ ग्योल होन' (कोरियाई भाषा में अनूदित कविताएं)। 'अष्टावक्र' (मराठी में अनूदित कविताएं)। 'गेहूँ घर आया है' (चुनी हुई कविताएँ, चयनः अशोक वाजपेयी)।
  • आलोचना एवं शोधः  नये कवियों के काव्य-शिल्प सिद्धान्त, ‘कविता के बीच से’, ‘साक्षात् त्रिलोचन’, ‘संवाद भी विवाद भी’। ‘निषेध के बाद’ (कविताएं), ‘हिन्दी कहानी का समकालीन परिवेश’ (कहानियां और लेख), ‘कथा-पडाव’ (कहानियां एवं उन पर समीक्षात्मक लेख), ‘आंसांबल’ (कविताएं, उनके अंग्रेजी अनुवाद और ग्राफिक्स), ‘दूसरा दिविक’ आदि का संपादन।
  •  ‘कोरियाई कविता-यात्रा’ (हिन्दी में अनूदित कविताएं)। ‘द डे ब्रक्स ओ इंडिया’ (कोरियाई कवयित्री किम यांग शिक की कविताओं के हिंदी अनूवाद) । ‘सुनो अफ्रीका’।
  • बाल-साहित्यः ‘जोकर मुझे बना दो जी’, ‘हंसे जानवर हो हो हो’, ‘कबूतरों की रेल’, ‘छतरी से गपशप’, ‘अगर खेलता हाथी होली’, ‘तस्वीर और मुन्ना’, ‘मधुर गीत भाग ३ और ४’, ‘अगर पेड भी चलते होते’, ‘खुशी लौटाते हैं त्यौहार’, ‘मेघ हंसेंगे जोर-जोर से’ (चुनी हुई बाल कविताएँ, चयनः प्रकाश मनु)। ‘धूर्त साधु और किसान’, ‘सबसे बडा दानी’, ‘शेर की पीठ पर’, ‘बादलों के दरवाजे’, ‘घमण्ड की हार’, ‘ओह पापा’, ‘बोलती डिबिया’, ‘ज्ञान परी’, ‘सच्चा दोस्त’, (कहानियां)। ‘और पेड गूंगे हो गए’, (विश्व की लोककथाएँ), ‘फूल भी और फल भी’ (लेखकों से संबद्ध साक्षात् आत्मीय संस्मरण)। ‘कोरियाई बाल कविताएं’। ‘कोरियाई लोक कथाएं’। ‘कोरियाई कथाएँ’।
  • ‘और पेड गूंगे हो गए’, ‘सच्चा दोस्त’ (लोक कथाएं)।
  • अन्यः ‘बल्लू हाथी का बाल घर’ (बाल-नाटक)। 
  • ‘खण्ड-खण्ड अग्नि’ के मराठी, गुजराती और अंग्रेजी अनुवाद।
  • अनेक भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में रचनाएं अनूदित हो चुकी हैं। रचनाएं पाठयक्रमों में निर्धारित।
  • विशेष : २०वीं शताब्दी के आठवें दशक में अपने पहले ही कविता-संग्रह ’रास्ते के बीच‘ से चर्चित हो जाने वाले आज के सुप्रतिष्ठित हिन्दी-कवि बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। ३८ वर्ष की आयु में ही ’रास्ते के बीच‘ और ’खुली आंखों में आकाश‘ जैसी अपनी मौलिक साहित्यिक कृतियों पर सोवियत लैंड नेहरू एवार्ड जैसा अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाले ये पहले कवि हैं। १७-१८ वर्षों तक दूरदर्शन के विविध कार्यक्रमों का संचालन किया। १९९४ से १९९७ में भारत सरकार की ओर से दक्षिण कोरिया में अतिथि आचार्य के रूप में भेजे गए जहाँ इन्होंने साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में कितने ही कीर्तिमान स्थापित किए। वहाँ के जन-जीवन और वहाँ की संस्कृति और साहित्य का गहरा परिचय लेने का प्रयत्न किया। परिणामस्वरूप ऐतिहासिक रूप में, कोरियाई भाषा में अनूदित-प्रकाशत हिन्दी कविता के पहले संग्रह के रूप में इनकी अपनी कविताओं का संग्रह ’से दल अइ ग्योल हान‘ अर्थात् चिड़िया का ब्याह है। इसी प्रकार साहित्य अकादमी के द्वारा प्रकाशित इनके द्वारा चयनित और हिन्दी में अनूदित कोरियाई प्राचीन और आधुनिक कविताओं का संग्रह ’कोरियाई कविता-यात्रा‘ भी ऐतिहासिक दृष्टि से हिन्दी ही नहीं किसी भी भारतीय भाषा में अपने ढंग का पहला संग्रह है। साथ ही इन्हीं के द्वारा तैयार किए गए कोरियाई बाल कविताओं और कोरियाई लोक कथाओं के संग्रह भी ऐतिहासिक दृष्टि से पहले हैं।
  • दिविक रमेश की अनेक कविताओं पर कलाकारों ने चित्र, कोलाज और ग्राफिक्स आदि बनाए हैं। उनकी प्रदर्शनियाँ भी हुई हैं। इनकी बाल-कविताओं को संगीतबद्ध किया गया है। जहाँ इनका काव्य-नाटक ’खण्ड-खण्ड अग्नि‘ बंगलौर विश्वविद्यालय की एम.ए. कक्षा के पाठ्यक्रम में निर्धारित है वहाँ इनकी बाल-रचनाएँ पंजाब, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र बोर्ड तथा दिल्ली सहित विभिन्न स्कूलों की विभिन्न कक्षाओं में पढ़ायी जा रही हैं। इनकी कविताओं पर पी-एच.डी के उपाधि के लिए शोध भी हो चुके हैं।
  • इनकी कविताओं को देश-विदेश के अनेक प्रतिष्ठित संग्रहों में स्थान मिला है। इनमें से कुछ अत्यंत उल्लेखनीय इस प्रकार हैं १. इंडिया पोयट्री टुडे (आई.सी.सी.आर.), १९८५, २. न्यू लैटर (यू.एस.ए.) स्प्रिंग/समर, १९८२, ३. लोटस (एफ्रो-एशियन राइटिंग्ज, ट्युनिस श्ज्नदपेश् द्धए वॉल्यूमः५६, १९८५, ४. इंडियन लिटरेचर ;(Special number of Indian Poetry Today) साहित्य अकादमी, जनवरी/अप्रैल, १९८०, ५. Natural Modernism (peace through poetry world congress of poets) (१९९७) कोरिया, ६. हिन्दी के श्रेष्ठ बाल-गीत (संपादकः श्री जयप्रकाश भारती), १९८७, ७. आठवें दशक की प्रतिनिधि श्रेष्ठ कविताएं (संपादकः हरिवंशराय बच्चन)।
  • दिविक रमेश अनेक देशों जैसे जापान, कोरिया, बैंकाक, हांगकांग, सिंगापोर, इंग्लैंड, अमेरिका, रूस, जर्मनी, पोर्ट ऑफ स्पेन आदि की यात्राएं कर चुके हैं।
  • सम्पर्क : divik_ramesh@yahoo.com

सोमवार, 24 अगस्त 2015

निदा फ़ाज़ली के दोहे


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


जीवन का विस्तार



युग-युग से हर बाग का, ये ही एक उसूल
जिसको हँसना आ गया वो ही मट्टी फूल

पंछी मानव, फूल, जल, अलग-अलग आकार
माटी का घर एक ही, सारे रिश्तेदार

चिड़ियों को चहकाकर दे, गीतों को दे बोल
सूरज बिन आकाश है, गोरी घूँघट खोल

चीखे घर के द्वार की लकड़ी हर बरसात
कटकर भी मरते नहीं, पेड़ों में दिन-रात

सीधा सादा डाकिया जादू करे महान
एक ही थैले में भरे आँसू और मुस्कान

सपना झरना नींद का जागी आँखें प्यास
पाना, खोना, खोजना, सांसों का इतिहास

सुना है अपने गाँव में, रहा न अब वह नीम
जिसके आगे मांद थे, सारे वैद्य-हकीम

छोटा कर के देखिए जीवन का विस्तार
आँखों भर आकाश है बाँहों भर संसार

मैं क्या जानूँ तू बता, तू है मेरा कौन
मेरे मन की बात को, बोले तेरा मौन

रास्ते को भी दोष दे, आँखें भी कर लाल
चप्पल में जो कील है, पहले उसे निकाल

ऊपर से गुड़िया हँसे, अंदर पोलमपोल
गुड़िया से है प्यार तो, टाँकों को मत खोल

मैं भी तू भी यात्री, आती-जाती रेल
अपने-अपने गाँव तक, सबका सब से मेल।

दर्पण में आँखें बनीं, दीवारों में कान
चूड़ी में बजने लगी, अधरों की मुस्कान

यों ही होता है सदा, हर चूनर के संग
पंछी बनकर धूप में, उड़ जाते हैं रंग

बूढ़ा पीपल घाट का, बतियाए दिन-रात
जो भी गुज़रे पास से, सिर पे रख दे हाथ

घर को खोजें रात दिन घर से निकले पाँव
वो रस्ता ही खो गया जिस रस्ते था गाँव



निदा फ़ाज़ली



  • जन्म: 12 अक्तूबर 1938
  • जन्म स्थान: दिल्ली (भारत)
  • कुछ प्रमुख कृतियाँ : आँखों भर आकाश, मौसम आते जाते हैं, खोया हुआ सा कुछ, लफ़्ज़ों के फूल, मोर नाच, आँख और ख़्वाब के दरमियाँ, सफ़र में धूप तो होगी
  • सम्मान : 1998 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित

सोमवार, 17 अगस्त 2015

ऋषभ देव शर्मा की तेवरियाँ


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार



(एक) 


रो रही है बाँझ धरती, मेह बरसो रे
प्रात ऊसर, साँझ परती, मेह बरसो रे

सूर्य की सारी बही में धूपिया अक्षर
अब दुपहरी है अखरती, मेह बरसो रे

नागफनियाँ हैं सिपाही, खींच लें आँचल
लाजवंती आज डरती, मेह बरसो रे

राजधानी भी दिखाती रेत का दर्पण
हिरनिया ले प्यास मरती, मेह बरसो रे

रावणों की वाटिका में भूमिजा सीता
शीश अपने आग धरती, मेह बरसो रे


(दो) 


गाँव, घर, नगर-नगर भूमि की पुकार
ताल, सर, लहर-लहर भूमि की पुकार

सींचें जो खेत में बूँद-बूँद गात
और ना पिएँ ज़हर भूमि की पुकार

नींव में ग़रीब-रक्त और ना चुए
साँझ प्रात दोपहर भूमि की पुकार

भूख के उरोज पर सेठ या मुनीम
और ना धरें नज़र भूमि की पुकार

और की हरे न धूप, छाँव बरगदी
दूर-दूर फैल कर, भूमि की पुकार

नींद की ग़ज़ल नहीं आज मित्रवर!
जागृति के छंद भर भूमि की पुकार


(तीन) 


बाँस का झुरमुट बजाता सीटियाँ
यह हवा सुलगा रही अंगीठियाँ

बुर्ज पर जो चढ़ गए, अंधे हुए
हैं हमारे खून से तर सीढ़ियाँ

कुछ, सिगारों-सिगरटों से पूछतीं
कान में खोंसी हुईं ये बीड़ियाँ

आपने बंजर बनाई जो धरा
जन्मती वह कीकरों की पीढ़ियाँ

पर्वतों पर है धमाकों का समाँ
घाटियों में घनघनाती घंटियाँ


(चार) 


चौराहों पर पिटी डौंड़ियाँ, गली-गली विज्ञापन है
कफ़न-खसोटों की बस्ती में ‘शैव्या’ का अभिनंदन है

आज आदमी से नागों ने यारी करने की ठानी
सँभल परीक्षित! उपहारों में ज़हरी तक्षक का फन है

आश्वासन की राजनीति ने लोकरीति से ब्याह रचा
मित्र ! श्वेत टोपी वालों का स्याही में डूबा मन है

ये बिछुए, पाजेब, झाँझरें और चूड़ियाँ लाल-हरी
दुलहिन का शृंगार नहीं है, परंपरागत बंधन है

सड़कों के घोषणापत्र में बटिया का उल्लेख हुआ
लगता है, कुछ षड्यंत्रों में व्यस्त हुआ सिंहासन है


(पांच) 


नाग की बाँबी खुली है आइए साहब
भर कटोरा दूध का भी लाइए साहब

रोटियों की फ़िक्र क्या है? कुर्सियों से लो
गोलियाँ बँटने लगी हैं खाइए साहब

टोपियों के हर महल के द्वार छोटे हैं
और झुककर और झुककर जाइए साहब

मानते हैं उम्र सारी हो गई रोते
गीत उनके ही करम के गाइए साहब

बिछ नहीं सकते अगर तुम पायदानों में
फिर क़यामत आज बनकर छाइए साहब

(छह) 


ईंट, ढेले, गोलियाँ, पत्थर, गुलेलें हैं
अब जिसे भी देखिए, उस पर गुलेलें हैं

आपकी ड्योढी रही, दुत्कारती जिनको
स्पर्शवर्जित झोंपड़ी, महतर गुलेलें हैं

यह इलाक़ा छोड़कर, जाना पड़ेगा ही
टिडिडयों में शोर है, घर-घर गुलेलें हैं

बन गए मालिक उठा, तुम हाथ में हंटर
अब न कहना चौंककर, नौकर गुलेलें हैं

इस कचहरी का यही, आदेश है तुमको
खाइए, अब भाग्य में, ठोकर गुलेलें हैं

क्या पता क्या दंड दे, यह आज क़ातिल को
भीड़ पर तलवार हैं, ख़ंजर गुलेलें हैं

रोटियाँ लटकी हुई हैं बुर्ज के ऊपर
प्रश्न- ‘कैसे पाइए’ उत्तर गुलेलें हैं

है चटोरी जीभ ख़ूनी आपकी सुनिए,
इस बिमारी में उचित नश्तर गुलेलें हैं

ये निशाने के लिए, हैं सध चुके बाज़ू
दृष्टि के हर छोर पर, तत्पर गुलेलें हैं

तार आया गाँव से, यह राजधानी में
शब्द के तेवर नए, अक्षर गुलेलें हैं



ऋषभ देव शर्मा 


जन्म : 04 जुलाई 1957, ग्राम गंगधाडी, जिला मुजफ्फरनगर (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा : एम.ए. (हिंदी), एम.एस.सी. (भौतिकी), पीएच.डी. (उन्नीस सौ सत्तर के पश्चात की हिंदी कविता का अनुशीलन).
कार्य : 1983-1990 : जम्मू और कश्मीर राज्य में गुप्तचर अधिकारी (इंटेलीजेंस ब्यूरो, भारत सरकार).
1990-1997 : प्राध्यापक. 1997-2005 : रीडर. 2005 से प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा.
प्रकाशन : काव्य संग्रह – 1. तेवरी (1982), 2. तरकश (1996), 3. ताकि सनद रहे (2002), 4. देहरी (स्त्रीपक्षीय कविताएँ, 2011), 5. प्रेम बना रहे (2012), 6. सूँ साँ माणस गंध (2013), 7. धूप ने कविता लिखी है (तेवरी-समग्र, 2014).
[‘प्रेम बना रहे’ कविता संग्रह के 2 तेलुगु अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं - :प्रिये चारुशीले (डॉ. भागवतुल हेमलता, 2013), प्रेमा इला सागिपोनी (जी. परमेश्वर, 2013)],हिंदी भाषा के बढ़ते कदम, 3. कविता के पक्ष में. 
आलोचना – 1. तेवरी चर्चा (1987), 2. हिंदी कविता : आठवाँ नवाँ दशक (1994), 3. कविता का समकाल (2011), 4. तेलुगु साहित्य का हिंदी पाठ (2013).
अनुवाद चिंतन – साहित्येतर हिंदी अनुवाद विमर्श (2000).
संपादन : पुस्तकें – भाषा की भीतरी परतें (भाषाचिंतक प्रो.दिलीप सिंह अभिनंदन ग्रंथ, 2012), शिखर-शिखर (डॉ.जवाहर सिंह अभिनंदन ग्रंथ), हिंदी कृषक (काजाजी अभिनंदन ग्रंथ), माता कुसुमकुमारी हिंदीतरभाषी हिंदी साधक सम्मान : अतीत एवं संभावनाएँ (1996), भारतीय भाषा पत्रकारिता (2000), स्त्री सशक्तीकरण के विविध आयाम (2004), उत्तरआधुनिकता : साहित्य और मीडिया (2013), प्रेमचंद की भाषाई चेतना, अनुवाद का सामयिक परिप्रेक्ष्य (1999, 2009), अनुवाद : नई पीठिका - नए संदर्भ, कच्ची मिट्टी  2, पुष्पक 3 और 4, पदचिह्न बोलते हैं. तेलुगु साहित्य का हिंदी अनुवाद : परंपरा और प्रयोग [परिलेख प्रकाशन], 2 सम्पादित पुस्तकें प्रेस में हैं.
पत्रिकाएँ – संकल्य (त्रैमासिक) : दो वर्ष, पूर्णकुंभ (मासिक) : पाँच वर्ष : सहायक संपादक, महिप (त्रैमासिक) : सहयोगी संपादक, आदर्श कौमुदी : तमिल कहानी विशेषांक, कर्णवती : समकालीन तमिल साहित्य विशेषांक, भास्वर भारत : संयुक्त संपादक.
मूलतः कवि. 1980 में तेवरी काव्यांदोलन (आक्रोश की कविता) का प्रवर्तन. अनेक शोधपरक समीक्षाएँ एवं शोधपत्र प्रकाशित. शताधिक पुस्तकों के लिए भूमिका-लेखन. आंध्रप्रदेश हिंदी अकादमी के ‘हिंदीभाषी हिंदी लेखक पुरस्कार - 2010’ द्वारा सम्मानित, ‘रमादेवी गोइन्का हिंदी साहित्य सम्मान - 2013’ से सम्मानित. डीलिट, पीएचडी और एमफिल के 125 शोधकार्यों का निर्देशन.
संप्रति : प्रोफेसर एवं अध्यक्ष (सेवानिवृत्त ), उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, खैरताबाद, हैदराबाद – 500004.
संपर्क : 208 ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स, गणेश नगर, रामंतपुर, हैदराबाद – 500013.मोबाइल : 08121435033
ईमेल : rishabhadeosharma@yahoo.com

सोमवार, 10 अगस्त 2015

पूर्णिमा वर्मन के पांच नवगीत


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


जीने की आपाधापी में


कितने कमल खिले जीवन में
जिनको हमने नहीं चुना

जीने की
आपाधापी में भूला हमने
ऊँचा ही ऊँचा
तो हरदम झूला हमने
तालों की
गहराई पर
जीवन की
सच्चाई पर
पत्ते जो भी लिखे गए थे, 
उनको हमने नहीं गुना

मौसम आए मौसम बीते
हम नहिं चेते
अपने छूटे देस बिराना
सपने रीते
सपनों की
आवाजों में
रेलों और
जहाज़ों में
जाने कैसी दौड़ थी जिसमें
अपना मन ही नहीं सुना



कोयलिया बोली


शहर की हवाओं में
कैसी आवाज़ें हैं
लगता है
गाँवों में कोयलिया बोली

नीलापन हँसता है
तारों में
फँसता है
संध्या घर लौट रहा
इक पाखी तकता है
गगन की घटाओं में
कैसी रचनाएँ हैं
लगता है
धरती पर फगुनाई होली

सड़कों पर नीम झरी
मौसम की
उड़ी परी
नई पवन लाई है
मलमल की ये कथरी
धरती के आँगन में
हरियल मनुहारें हैं
लगता है
यादों ने कोई गाँठ खोली



मंदिर दियना बार


मंदिर दियना बार सखी री
मंगल दियना बार!
बिनु प्रकाश घट-घट सूनापन
सूझे कहीं न द्वार!

कौन गहे गलबहियाँ सजनी
कौन बँटाए पीर
कब तक ढोऊँ अधजल घट यह
रह-रह छलके नीर
झंझा अमित अपार सखी री
आँचल ओट सम्हार

चक्र गहें कर्मो के बंधन
स्थिर रहे न धीर
तीन द्वीप और सात समंदर
दुनिया बाजीगीर
जर्जर मन पतवार सखी री
भव का आर न पार!

अगम अगोचर प्रिय की नगरी
स्वयं प्रकाशित कर यह गगरी
दिशा-दिशा उत्सव का मंगल
दीपावलि छाई है सगरी
छुटे चैतन्य अनार सखी री
फैले जग उजियार 



 कचनार के दिन


 फिर मुँडेरों पर
 सजे कचनार के दिन

 बैंगनी से श्वेत तक
 खिलती हुई मोहक अदाएँ
 शाम लेकर उड़ चली
 रंगीन ध्वज सी ये छटाएँ
 फूल गिन गिन
 मुदित भिन-भिन
 फिर हवाओं में
 बजे कचनार के दिन

 खिड़कियाँ, खपरैल, घर, छत
 डाल, पत्ते आँख मीचे
 आरती सी दीप्त पखुरी
 उतरती है शांत नीचे
 रूप झिलमिल
 चाल स्वप्निल
 फिर दिशाओं ने
 भजे कचनार के दिन



 वह झोली ही बदल गई


 पगडंडी सड़कों में बदली, 
 सड़क पुलों में बदल गई
 पार पुलों के
 आते आते
 जिसे बुना था
 बड़े शौक से
 वह झोली ही बदल गई

 याद नहीं
 हम कहाँ चले थे
 और कहाँ तक जाना था

 एक कहानी शुरू हुई जो
 उसे कहाँ ले जाना था
 जिस भाषा
 में बात शुरू की
 वह बोली ही बदल गई

 कौन थका
 कब कौन विरामा
 किसने बोझा थामा था
 कौन चल दिया राह छोड़ कर
 सफर में जो सरमाया था
 जिन लोगों
 के साथ चले थे
 वह टोली ही बदल गई


पूर्णिमा वर्मन  


  • जन्म : 27 जून 1955 को पीलीभीत में।
  • शिक्षा : संस्कृत साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि, स्वातंत्र्योत्तर संस्कृत साहित्य पर शोध, पत्रकारिता और वेब डिज़ायनिंग में डिप्लोमा।
  • कार्यक्षेत्र : पूर्णिमा वर्मन का नाम वेब पर हिंदी की स्थापना करने वालों में अग्रगण्य है। 1996 से निरंतर वेब पर सक्रिय, उनकी जाल पत्रिकाएँ अभिव्यक्ति तथा अनुभूति वर्ष 2000 से अंतर्जाल पर नियमित प्रकाशित होने वाली पहली हिंदी पत्रिकाएँ हैं। इनके द्वारा उन्होंने प्रवासी तथा विदेशी हिंदी लेखकों को एक साझा मंच प्रदान करने का महत्त्वपूर्ण काम किया है। लेखन एवं वेब प्रकाशन के अतिरिक्त वे जलरंग, रंगमंच, संगीत तथा हिंदी के अंतर्राष्ट्रीय विकास के अनेक कार्यों से जुड़ी हैं।
  • पुरस्कार व सम्मान : दिल्ली में भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद, साहित्य अकादमी तथा अक्षरम के संयुक्त अलंकरण "प्रवासी मीडिया सम्मान", जयजयवंती द्वारा जयजयवंती सम्मान, रायपुर में सृजन गाथा के "हिंदी गौरव सम्मान", विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ, भागलपुर द्वारा मानद विद्यावाचस्पति (पीएच.डी.) की उपाधि तथा केंद्रीय हिंदी संस्थान के पद्मभूषण डॉ. मोटूरि सत्यनारायण पुरस्कार से सम्मानित।
  • प्रकाशित कृतियाँ : कविता संग्रह : पूर्वा, वक्त के साथ एवं चोंच में आकाश
  • संपादित कहानी संग्रह- वतन से दूर 
  • चिट्ठा : चोंच में आकाश, एक आँगन धूप, नवगीत की पाठशाला, शुक्रवार चौपाल, अभिव्यक्ति अनुभूति।
  • अन्य भाषाओं में- फुलकारी (पंजाबी में), मेरा पता (डैनिश में), चायखाना (रूसी में)
  • संप्रति : संयुक्त अरब इमारात के शारजाह नगर में साहित्यिक जाल पत्रिकाओं 'अभिव्यक्ति' और 'अनुभूति' के संपादन और कला कर्म में व्यस्त।
  • संपर्क : purnima.varman@gmail.com 
  • फेसबुक पर- https://www.facebook.com/purnima.varman

सोमवार, 3 अगस्त 2015

श्रीकांत वर्मा की कविताएँ


विनोद शाही की कलाकृति

हस्तिनापुर का रिवाज


मै फिर कहता हूं
धर्म नहीं रहेगा तो कुछ नहीं रहेगा
मगर मेरी कोई नहीं सुनता
हस्तिनापुर में सुनने का रिवाज नहीं
तब सुनो या मत सुनो
हस्तिनापुर के निवासियो! होशियार
हस्तिनापुर में/ तुम्हारा
एक शत्रु पल रहा है विचार
और याद रक्खो
आजकल महामारी की तरह फैल जाता है
विचार


प्रजापति


इस भयानक समय
में कैसे लिखूं
और कैसे नहीं लिखूं?
सैकड़ों वर्षों से सुनता आ रहा हूं
घृणा नहीं प्रेम करो-
किससे करूं प्रेम?
मेरे चारों ओर हत्यारे हैं
मुकुटहीन
इस नग्न शरीर पर
मुकुट प्रतिष्ठा का
यदि कभी नहीं आया
तो कारण है
यह किसी
शक्ति कुल के सिक्कों पर
बिका नहीं।

युद्धनायक
यूरोप
बडबडा रहा है बुखार में
अमेरिका
पूरी तरह भटक चुका है
अंधकार में
एशिया पर
बोझ है गोरे इंसान का
संभव नहीं है
कविता में वह सब कह पाना
जो घटा है बीसवीं शताब्दी में
मनुष्य के साथ
कांपते हैं हाथ
पृथ्वी की एक-एक सड़क पर
भाग रहा है मनुष्य
युद्ध पीछा कर रहा है


श्रीकांत वर्मा 


  • जन्म-18 सितंबर 1931 बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
  • निधन: 1986
  • प्रमुख कृतियाँ-भटका मेघ (1957), मायादर्पण (1967), दिनारम्भ (1967), जलसाघर (1973), मगध (1984)।
  • सम्मान-1973 में मध्यप्रदेश सरकार का 'तुलसी पुरस्कार'; 1983 में 'आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी' पुरस्कार; 1980 में 'शिखर सम्मान'; 1984 में कविता पर केरल सरकार का कुमार आशान पुरस्कार; 1987 में मगध नामक कविता संग्रह के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार।

पुस्तक चर्चा: कवि महेंद्रभटनागर का चाँद-खगेंद्र ठाकुर





कुछ और जीना चाहता हूँ..


‘चाँद, मेरे प्यार!’ नाम से महेंद्रभटनागर के मात्र प्रेम-गीतों का एक विशिष्ट संकलन प्रकाशित हुआ है। इसमें संकलित 109 गीतों का चयन उनके पूर्व-प्रकाशित कविता-संग्रहों में से किया गया है। चयन स्वयं कवि ने किया है। ये प्रेम-गीत चाँद के माध्यम से व्यक्त हुए हैं। महेंद्रभटनागर जी के अन्य विषयों से सम्बद्ध और भी संचयन प्रकाशित हैं; पर मैं प्रेम-गीतों पर ही लिख पा रहा हूँ। इस लेख से हिंदी-कविता के पाठक उनकी कविता की ओर प्रेरित हुए तो मुझे प्रसन्नता होगी और मैं अपना श्रम सार्थक समझूंगा। मैं समझता हूँ कि कवि-कर्म कोई निष्काम कर्म नहीं होता। लेकिन लिखने मात्र से यश नहीं मिलता। उसके पीछे आजकल तो आलोचकों से पहले प्रकाशकों की भूमिका होती है।
मैं 1957-59 में ‘पटना विश्वविद्यालय’ में एम. ए. (हिंदी) का छात्र था, तभी महेंद्रभटनागर जी की कविताएँ पढ़ता था। तभी से नागार्जुन, शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन और मुक्तिबोध आदि प्रगतिशील कविता के प्रतिनिधि माने जाते रहे हैं। प्रगतिशील कविता ही नहीं छायावादोत्तर हिंदी-कविता का इतिहास इन्हीं कवियों से बनता है। ‘चाँद, मेरे प्यार!’ के गीत रूमानी भावधारा की याद दिलाते हैं। लेकिन गीतों के इतिहास में ये उल्लेखनीय हैं। मुझे नागार्जुन की एक बात याद आती है, वह यह कि अगर कोई पाठक कुछ गुनगुनाना चाहे, तो उसे पीछे की कविताओं को ही मुड़ कर देखना होगा। इस दृष्टि से महेंद्रभटनागर जी के ये गीत ध्यान देने योग्य हैं।
पहली रचना है ‘राग-संवेदन’, जिसमें कवि एक सामान्य सत्य की तरह जीवन का यह सत्य व्यक्त करता है —
सब भूल जाते हैं
केवल / याद रहते हैं
आत्मीयता से सिक्त
कुछ क्षण राग के !
कवि राग यानी अनुराग यानी प्रेम को याद रखने की बात कहते हैं। ‘राग’ को छंद और ध्वन्यात्मक लय से भी जोड़ा जा सकता है। राग जीवन में दुर्लभ होता है, खास कर के समकालीन जीवन में, इसीलिए तो कवि उसे याद रखने का विषय समझता है। इस कलन में अनेक ऐसे गीत हैं, जिनके आधार पर महेंद्रभटनागर जी को याद रखा जा सकता है। उनमें सफल अभिव्यक्ति है। एक गीत है ‘जिजीविषा’। कवि कहता है —
अचानक
आज जब देखा तुम्हें
कुछ और जीना चाहता हूँ!
पारस्परिक आकर्षण और प्रेम से जीने की इच्छा बढ़ती है और शायद जीने की शक्ति भी। जब आदमी अपने प्रिय पात्र को देखता है, तो जि़न्दगी के दाह के बावजूद कवि कहता है —
विष और पीना चाहता हूँ!
कुछ और जीना चाहता हूँ!
जब अकेलापन दूर हो जाता है, तो जिजीविषा मज़बूत होती है। यह एक श्रेष्ठ भावना है, जो कविता को श्रेष्ठ बनाती है।
इस संकलन की कविताएँ विविध प्रसंगों के साथ विविध प्रकार से विविध अदाओं में प्यार की भूमिका, प्यार की महत्ता, और प्यार की शक्ति महसूस कराती हैं। एक जगह कवि कहता है —
याद आता है
तुम्हारा रूठना!
इसके जरिये कवि जीवन के अनेक प्रसंग कवि को याद आते हैं। प्यार की अभिव्यक्ति स्मृति के रूप में आती है। जाहिर है कि वर्तमान जीवन में प्यार का अभाव है। कवि कहता है कि प्यार की स्मृति आगे जीने का सहारा बनता है। प्यार की स्मृति में भी जीवनी शक्ति है —
शेष जीवन
जी सकूँ सुख से
तुम्हारी याद काफ़ी है!
यह है प्यार की स्मृति की शक्ति। कवि के लिए प्यार बहुत व्यापक है। मनुष्येतर प्राणी भी प्यार का साधन  है—
गौरैया हो
मेरे आँगन की
उड़ जाओगी!
यद्यपि गौरैया यहाँ रूपक है, फिर भी वह प्रेम का आलम्बन भी है। कवि को इस बात का अनुभव है कि जीवन आमतौर से दुःखद है और आदमी सुख पाने के लिए तरसता रहता है। ज़रूरी नहीं कि वह सुख भौतिक साधनों से ही मिले। वह किसी का प्यार पाने से भी मिलता है —
क्या-क्या न जीवन में किया
कुछ पल तुम्हारा प्यार पाने के लिए!
इस सम्पूर्ण संकलन की कविताएँ तरल और सुखद प्रेम की भावुकता से लबालब भरी हुई हैं। एक गीत है ‘रात बीती’, उसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ हैं —
याद रह-रह आ रही है 
रात बीती जा रही है!
याद आती है रात में, अँधेरे में, शायद प्रेम और स्मृति के लिए अँधेरे का एकांत अधिक उपयुक्त होता है, लेकिन रात बीतती भी है यानी प्यार की स्मृति का समय स्थायी नहीं होता। ‘रह-रह याद ’ आने में एक प्रकार की असंगति है। पाठक यह सोच सकता है कि रात बीत जाने के बाद यादों का क्या हो जाता है? इस प्रसंग में यही सोचना चाहिए कि प्रेम लपेटे अटपटे बैन हैं ये। कविता का झुकाव गुज़रे दिनों की ओर है। उपर्युक्त गीत में ही वे लिखते हैं —
झूमते हैं चित्र नयनों में कई
गत तुम्हारी बात हर लगती नयी
आज तो गुज़रे दिनों की
बेरुखी भी भा रही है!
यह प्रेम पात्र की विशेषता है कि उसके प्रभाव से विगत बात भी नयी लगती है और गुज़रे दिनों की बेरुखी भी भा रही है। समय की गतिशीलता पर कवि की नज़र है। प्रेम-पात्र के अभाव में ‘मुरझाया-सा जीवन-शतदल’ लगता है। इस अभिव्यक्ति से प्रेम की महत्ता प्रकट होती है।
रात प्रेम की अभिव्यक्ति का उपयुक्त समय है, इसकी परम्परा भी है। प्रेम केवल भावना नहीं है। वह भौतिक सुख का माध्यम भी है। प्रेमी को लगता है शशि दूर गगन से देख रहा है, जैसे कि रात भी एकांत नहीं रहती। प्रेम का भंडार अथाह है, अक्षय है। रात बीत जाती है,  लेकिन प्रेम-वार्ता ख़त्म  नहीं होती।  इसके बावज़ूद कवि कहता है —
सारे नभ में बिखरी पड़ती है मुसकान
पर कितना लाचार अधूरा है अरमान!
प्रेम की मुसकान का सारे नभ में बिखरा होना — तारों के प्रसंग में अच्छी अभिव्यक्ति है, रोचक कल्पना है। कवि के अरमान इतने ज़्यादा हैं कि अनन्त आकाश में मुसकान बन कर बिखर जाने के बावजूद अरमान अधूरे रह जाते हैं।
चाँद में कवि के लिए आकर्षण है, लेकिन चाँद तो  आकाश में है। कवि कहता है —
मुझे मालूम है यह चाँद
मुझको मिल नहीं सकता,
कभी भी भूल कर स्वर्गिक
महल से हिल नहीं सकता।
कवि कहना चाहता है कि प्यार तर्क का विषय नहीं है। वह भावना का विषय है, भावुकता में बुद्धि-विवेक स्थगित हो जाते हैं। यही कारण है कि प्रेमिका उजड़ी फुलवारी को भी बडे़ जतन से सजाती है। असल में कवि 

प्रेम को सदाबहार मधुमास और बरसात समझता है। प्रेम भावना के साथ विश्वास का भी विषय है, इसीलिए विश्वास भी तर्क का विषय नहीं है। तर्क विश्वास को खंडित कर सकता है, अतः वहाँ तर्क की ज़रूरत नहीं होती। प्रेम कविता का शाश्वत विषय है। इसीलिए इस बात की गुंजाइश वहाँ कम ही होती है कि नये प्रसंग, नये संदर्भ और अभिव्यक्ति की नयी भंगिमा आये। यह बात महेंद्रभटनागर के गीतों पर भी लागू है। 
हिंदी-गीत ने विकास के क्रम में परिवर्तन के अनेक दौर देखे हैं, जैसे नवगीत, जनगीत आदि। महेंद्रभटनागर जी परिवर्तन की इस प्रक्रिया से अप्रभावित अपनी गति से चलते रहे हैं। इनकी भाषा-भंगिमा भी रूमानी गीतों वाली है। यही कारण है कि ये गीत आलोक, चाँद, घन, दीपक, स्वप्न, आदि प्रतीक बन कर बार-बार आते हैं। यह प्रवृत्ति विगतकाल होने के कारण गतिशील इतिहास द्वारा ही उपेक्षित हो जाती है। समकालीनता जिनमें नहीं है, शाश्वतता है, जब कि काव्य-धारा में शाश्वत कुछ भी नहीं होता। आलोचक आम तौर से समकालीन और आधुनिक को पहचानने की कोशिश करता है। वह रचना के यथार्थ के चरित्र को पहचानने की कोशिश करता है। इसीलिए गतानुगतिक प्रवृत्तियाँ उपेक्षित रह जाती हैं, और ऐसा होना स्वाभाविक है।

डॉ.महेंद्र भटनागर 


110, बलवन्तनगर, गाँधी रोड, 
ग्वालियर-474 002 (म॰ प्र॰)
फ़ोन : 0751-4092908
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