सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

तीन कविताएं-आशा पाण्डे ओझा


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


जानते हो ना तुम


जानते हो ना तुम
करने को बेबस का भला
काटा जाता है बेबस का ही गला
भूले से जब कभी जीत जाता है
जो कोई बेबस
तो समझो दूसरी ओर
कोई बेबस ही हार कर
सिसक रहा होगा
पूंजीवादी चकाचौंध से नहीं आती
किरण भर भी रोशनी
कभी झुग्गियों के लिए
टिमटिमाते दीयों से ही ली जाती रही है
रौशनी सदैव अंधेरों के लिए
सूरज जब भी निकला
शफ़क़ के लिए निकला
कब किया उसने अंधेरों का भला


राजनीति


जिस देश की राजनीति
जनता की सिसकियों की थाप
अनसुनी कर
भोग-विलास संग
नाजायज सबंध बना
रंगरेलियाँ मना रही हो,
जिस देश की राजनीति
उस सत्ता की कोख से
नाजायज अंधेरों का जन्मना
कैसे रोक सकता है भला कोई
विधवा के जीवन सा ठहर जाता है
उस देश का विकास
सम्पूर्ण पोषण के अभाव में
विकृत अपाहिज हो जाते हैं संस्कार
आंतक की औलाद
घूमने लगती है गली-गली
आवारा सांड सी बेलगाम
बीमार रहने लगता है अर्थशास्त्र
साहित्य का दम घुटने लगता है
चहुँ ओर काला धूंआं छोड़ती उस सदी में
तिल-तिल मरता है स्वर्णिम इतिहास
हत्या हो जाती है इंसानियत की
और बेवा सराफतें कर लेती हैं आत्महत्या
इस तरह क्षण-क्षण खंड-खंड
टूटता बिखरता समाप्त हो जाता है
वो देश।


पुरुष गिद्द दृष्टि


ज़िन्दगी जीने की चाह
कुछ पाने की ख्वाहिश
आँखों के सुनहले सपने
इक नाम मुकाम की ज़िद्द
अटूट आत्मविश्वास

यही कुछ तो लेकर निकली थी
वो ख्वाहिशों के झोले में
किसी ने नहीं देखी
उसके सपने भरे आँखों की चमक
किसी को नज़र नहीं आया
उसका अटूट आत्मविश्वास
किसी ने नहीं नापी
उसकी लगन की अथाह गहराई
माने  भी नहीं किसी के लिए
उसकी भरसक मेहनत के
उसके चारों ओर फ़ैली हुई है
एक पुरुष गिद्द दृष्टि
जो मुक्त नहीं हो पा रही
आज भी उसकी देह के आकर्षण से
वो लड़ रही है लड़ाई
देह से मुक्त होने को


आशा पाण्डे ओझा



  • जन्म स्थान ओसियां (जोधपुर)।
  • पिता : श्री शिवचंद ओझा
  • माता :श्रीमति राम प्यारी ओझा
  • शिक्षा :एम .ए (हिंदी साहित्य) एल एल.बी।
  • जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय,जोधपुर (राज.)।
  • 'हिंदी कथा आलोचना में नवल किशोरे का योगदान में शोधरत।
  • प्रकाशित कृतियां-दो बूंद समुद्र के नाम, एक कोशिश रोशनी की ओर (काव्य), त्रिसुगंधि (सम्पादन) "ज़र्रे-ज़र्रे में वो है" कविता संग्रह।
  • शीघ्र प्रकाश्य-वजूद की तलाश (संपादन), वक्त की शाख से (काव्य), पांखी (हाइकु संग्रह)।
  • देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं व इ-पत्रिकाओं में कविताएं,मुक्तक ,ग़ज़ल ,क़तआत ,दोहा,हाइकु,कहानी,व्यंग समीक्षा,आलेख ,निंबंध ,शोधपत्र निरंतर प्रकाशित।
  • सम्मान -पुरस्कार-कवि  तेज पुरस्कार जैसलमेर ,राजकुमारी रत्नावती पुरस्कार जैसलमेर ,महाराजा कृष्णचन्द्र जैन स्मृति सम्मान एवं पुरस्कार पूर्वोत्तर हिंदी अकादमी शिलांग (मेघालय ) साहित्य साधना समिति पाली एवं  राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर द्वारा अभिनंदन ,वीर दुर्गादास राठौड़ साहित्य सम्मान जोधपुर ,पांचवे अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विकास सम्मलेन ताशकंद में सहभागिता एवं सृजन श्री सम्मान ,प्रेस मित्र क्लब बीकानेर राजस्थान द्वारा अभिनंदन ,मारवाड़ी युवा मंच श्रीगंगानगर राजस्थान द्वारा अभिनंदन ,साहित्य श्री सम्मान संत कवि सुंदरदास राष्ट्रीय सम्मान समारोह समिति भीलवाड़ा-राजस्थान ,सरस्वती सिंह स्मृति सम्मान पूर्वोत्तर हिंदी अकादमी शिलांग मेघालय ,अंतराष्ट्रीय साहित्यकला मंच मुरादाबाद के सत्ताईसवें अंतराष्ट्रीय हिंदी विकास सम्मलेन काठमांडू नेपाल में सहभागिता एवं हरिशंकर पाण्डेय साहित्य भूषण सम्मान ,राजस्थान साहित्यकार परिषद कांकरोली राजस्थान  द्वारा अभिनंदन ,श्री नर्मदेश्वर सन्यास आश्रम  परमार्थ ट्रस्ट एवं सर्व धर्म मैत्री संघ अजमेर राजस्थान के संयुक्त तत्वावधान में अभी अभिनंदन ,राष्ट्रीय साहित्य कला एवं संस्कृति परिषद् हल्दीघाटी द्वारा काव्य शिरोमणि सम्मान ,राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर एवं साहित्य साधना समिति पाली राजस्थान द्वारा पुन: सितम्बर २०१३ में अभिनंदन।
  • रूचि :लेखन,पठन,फोटोग्राफी,पेंटिंग,प्राकृतिक सौन्दर्य को निहारते हुवे घूमना-फिरना।
  • संपर्क : 09772288424/07597199995/09414495867
  • ईमेल-asha09.pandey@gmail.com
  • ब्लॉग-ashapandeyojha.blogspot.com
  • पृष्ठ-आशा का आंगन एवं Asha pandey ojha _ sahityakar

सोमवार, 19 अक्तूबर 2015

अजामिल की कविताएं


कलाकृति-अजामिल

बाबूजी की चिट्ठियाँ


जैसे कोई किसी की  
जिंदगी सँवारता है - धीरे-धीरे
मुजस्समे तराशता है संतरास
संगीत रचता है -
हवाओं के चलने से
आस्थाएं और विश्वास से पैदा होते हैं
वेद-पुराण
बाइबिल-कुरान
बीज बनता है वृक्ष जैसे
वैसे ही किसी अज्ञात पीड़ा से गुजरकर
चिट्ठियाँ लिखा करते थे बाबूजी -
एक कलाकार की तरह

शबनमीं हरूफों के
गोशे-गोशे में
बसी होती थी उनकी रूह

कहाँ जाना है
कहाँ मुड़ना है
कहाँ रुकना है - बताते थे ऐसे
जैसे कोई भटके हुए को
बताए रास्ता

‘प्रिय’ से शुरु होकर
‘तुम्हारे बाबूजी “ तक
आशीष बरसता था - मूसलाधार
उनकी चिट्ठियों में

भीग जाता था
रोम-रोम
उनके प्यार-दुलार से
चिट्ठियों में साँस लेते थे
बाबू जी

सिर चढ़कर बोलता है आज भी
उनकी लिखावट का जादू
कोई-कोई ही बुन पाता है जिंदगी को
इतने सलीके से

यकीनन दिल और दिमाग पर
छा-जाने वाली
कालजयी रचनाओं की तरह हैं -
बाबूजी की चिट्ठियाँ

सोचता हूँ - इन्हे सहेजकर भी तो
सहेजे जा सकते हैं -
बाबूजी


कोई बच्चा


इस डरावने सन्नाटे के खिलाफ
दुनिया के तिलिस्म में आने से पहले
कोई बच्चा धीरे-धीरे रो रहा है
माँ के गर्भ में

कोई और एक बच्चा गर्भ सागर में
चीख रहा है
जन्म लेने से इंकार कर रहा है
पृथ्वी पर

कोई बच्चा परख-नली में धड़क रहा है
आँखें खोलने के लिए

इच्छाओं की ताप से
मुक्त होने के लिए
नाली में बहा दिया गया है कोई बच्चा
अभी-अभी तेज पानी की धार के साथ
कमोड के रास्ते अवांक्षित मानकर

कोई बच्चा दर्ज करवा रहा है
अपना परिचय स्केनर के चमकदार पर्दे पर

अपने-अपने मतलब के बच्चे
तलाशे जा रहे हैं - करोड़ों-करोड़ गर्भ में पल रहे
बेमतलब के बच्चों के बीच से

कसाईबाड़े में जब
सुविधाएं जन्मेंगी - नया जीवन
बच्चे गर्भ में चीखेंगे चिल्लायेंगे

लंगड़ी-लूली
शताब्दी इस तरह दाखिल होगी
आगामी वर्तमान में

कोख में कुछ नहीं होगा तब

परदे पर
बच्चे की तस्वीर भी नहीं ।


औरतें जहाँ भी हैं


दरवाजे खोलो
और दूर तक देखो खुली हवा में

मर्दों की इस तानाशाह दुनिया में
औरतें जहाँ भी हैं - जैसी भी हैं
पूरी शिद्दत के साथ मौजूद हैं - वे हमारे बीच
अंधेरे में रोशनी की तरह

औरतं हँसती हैं - खिखिलाती हैं औरतें
खुशियाँ बरसती हैं सब तरफ
छोटे-छोटे उत्सव बन जाती हैं औरतें
औरतें रोती हैं - सिसक-सिसककर जब कभी
अज्ञात दारूण दुःख में भीग ताजी है यह धरती

औरतें हमारा सुख हैं
औरतें हमारा दुःख हैं
हमारे सुख-दुःख की गहरी अनुभूति हैं ये औरतें

जड़ से फल तक - डाल से छाल तक
वृक्षों-सी परमार्थ में लगी हैं - ये औरतें
युगों से कूटी-पीसी-छीली-सुखायी और सहेजी जा रही हैं औरतें
असाध्य रोगों की दवाओं की तरह

सौ-सौ खटरागों में खटती हुई
रसोईघरों की हदों में
औरतें गमगमाती हैं - मीट-मसालों की तरह
सिलबट्टों पर खुशी-खुशी पोदीना-प्याज की तरह
पिस जाती हैं औरतें

चूल्हे पर रोटी होती हैं औरतें
यह क्या कम बड़ी बात है
लाखों करोड़ों की भूख-प्यास हैं औरतें

पृथ्वी-सी बिछी हैं औरतें
आकाश-सी तनी हैं औरतें
जरूरी चिट्ठियों की तरह
रोज पढ़ी जाती हैं औरतें
तार में पिरो कर टांग दी जाती हैं औरतें
वक्त-जरूरत इस तरह
बहुत काम आती हैं औरतें

शोर होता है जब
औरतें चुपचाप सहती हैं ताप को
औरतें चिल्लाती हैं जब कभी
बहुत कुछ कहतीं हैं आपको

औरतों के समझने के लिए तानाशाहों
पहले दरवाजे खोलो
और दूर तक देखो खुली हवा में ।


उस दिन


उस दिन उसने पाँच हाथ की साड़ी पहनी
उस दिन उसने खुदको लपेटा - सब तरफ से
उस दिन उसने दिन में कई-कई बार
आईना देखा
उस दिन उसने कंधे पर खोल दिये लम्बे बाल
उस दिन खुद को छुपाते हुए सबसे
इठलाई, इतरायी और शर्मायी

उस दिन पूरे समय गुनगुनाती रही - इधर उधर
उस दिन उसने स्टीरियो पर
दर्द भरा गीत सुना
उस दिन उसने
अलबम में तस्वीरें देखी - आँख भर,
उस दिन सुबक सुबक रोयी - जाने क्या सोचकर

उस दिन उसे चाँद खूबसूरत लगा
उस दिन चिड़ियों की तरह आकाश में -
उड़ने को चाहा उसका मन
उस दिन उसने बालकनी में खडे़ होकर
जी भर देखा दूर-दूर तक

उस दिन उसने सपने सहेजे
उस दिन उसने अंतहीन प्रतीक्षा की -
किसी के आने की
उस दिन उसने जीवन में पहला प्रेमपत्र लिखा
उस दिन उसने रूमाल पर बेलबूटे बनाए
और मगन हो गयी ....

उस दिन
हाँ, उस दिन हमारे देखते-देखते -
बिटिया बड़ी हो गयी ।


बुरा वक़्त


बुरे वक्त में
अक्सर बुरे नहीं होते हम
कुछ तिरछी- बाँकी चाल से
छुपते-छुपाते भी
बयान हो जाती हैं - अच्छी आदतें

बुरे वक्त में
कुछ ज्यादा ही गुनगुनाते हैं हम
सीटियाँ बजाते हैं - बेवजह
भले ही तनतनाती घूमती हो उसकी गूँज
शब्दान्तरित होती - संवेदनाओं में

बुरे वक्त में
हम पैदल ही निकल जाते हैं - टहलने
अतीत में
अजनबियों से भी हाथ मिलाने पर
सुकून-ज़दा गर्मी महसूस होती है - हथेलियों में
हाथ छोड़ने का जी नहीं करता - बुरे वक्त में

अच्छे वक्त में भी
बहुत याद आता है - बुरा वक्त
पुरानी - सबसे पुरानी तस्वीरों और चिट्ठियों में
खुद को तलाशता है - बुरा वक्त
बीमार बुजुर्गों की तरह
रात-रात भर खाँसता-खंखारता है - बुरा वक्त
नेपाली चौकीदारों की तरह बेहद वफादार है - बुरा वक्त

हर ईमानदार कोशिश में
सबसे अच्छा होता है - बुरा वक्त
बुरे वक्त में सीढ़ियाँ खुद-ब-खुद जाती हैं -
अच्छे वक्त की तरफ

बुरे वक्त में
कभी नहीं बहती खून की नदियाँ
म्यानों में आराम फरमाते हैं - तलवार और खंजर
सोने मढ़े दांतों की सफाई होती है - बुरे वक्त में
दोनालियों में पनाह पाते हैं कॉक्रोच
तितलियाँ बेखौफ घूमती हैं घाटियों में
गर्भाधान सकुशल होता है
चिड़ियां झूठे बर्तनों पर मंडराती हैं
नमक-निवाले के लिए
लोग अपने घरों से निकलते हैं -
खटखटाते हैं पड़ोसी के दरवाजों की कुण्डियाँ
वक्त - बेवक्त का कोई बुरा नहीं मानता - बुरे वक्त में

बुरे वक्त में
कच्चे प्याज की बास बन जाता है प्यार
प्रेमिका के आलिंगन में बादलों-सा
बरस कर निकल जाता है - बुरा वक्त

आँखें पढ़ी जाती हैं - बुरे वक्त में
ताबीजों में दुआ होता है - बुरा वक्त
गिरजाघरों की चाँदी होती है - बुरे वक्त में
बुरे वक्त में देवता भी स्वर्ग में होते हैं -
आदमी को ठेंगा दिखाकर

बुरे वक्त में
औजार बदलते हैं - हमारी शिनाख्त के

बुरा वक्त जी भर तोड़ता है हमें
बुरा वक्त जी भर जोड़ता है हमें

बुरे वक्त में हम पहचाने जाते हैं -
अच्छे वक्त के लिए

खूब गहरी नींद की तरह है - बुरा वक्त
बुरा वक्त इतना भी बुरा नहीं होता कभी
कि हाशिए पर उसे
फेंक दिया जाए -
अच्छे वक्त के लिए   अक्सर
तब अच्छे वक्त में ही छुपा होता है - बुरा वक्त
बुरा वक्त भी बुरा नहीं
बुरे की मुखालफत के लिए

जिंदगी की इस जद्दोजहद में
यकीनन
बडे काम का है - ये बुरा वक्त


अजामिल


  • मूल नाम : आर्य रत्न व्यास 
  • पिता का नाम : स्व०डॉ० बसंत नारायण व्यास 
  • प्रकाशन : देश की लगभग सभी चर्चित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियां, लेख आदि प्रकाशित | 
  • काव्य संकलन : त्रयी एक (संपादक डॉ० जगदीश गुप्त), शिविर (संपादक विनोद शाही), काला इतिहास (संपादक बलदेव वंशी), सातवें दशक की सर्व श्रेष्ठ कविताएँ (संपादक डॉ० हरिवंशराय बच्चन), जो कुछ हाशिए पर लिखा है (संपादक अनिल श्रीवास्तव, संपादक कथ्य रूप) 
  • काव्य संग्रह : औरते जहाँ भी हैं (शीग्र प्रकाश्य) 
  • संपर्क: 712/6, हर्षवर्धन नगर,मीरापुर, इलाहाबाद 
  • मो.09889722209 
  • ईमेल: ajamil777@gmail.com 

सोमवार, 12 अक्तूबर 2015

कल्पना रामानी के गीत


विनोद शाही की कलाकृति

बेटियों नाव बचानी है..


खुद थामो पतवार,
बेटियों, नाव बचानी है।
मझधारे से तार,
तीर तक लेकर जानी है।

क्यों निर्भर हो तुम समाज पर।
जिसकी नज़रें सिर्फ राज पर।
तमगा उससे छीन बेटियों,
करो दस्तखत स्वयं आज पर।

पत्थर की इस बार
मिटे, जो रेख पुरानी है।

यह समाज बैठा है तत्पर।
गहराई तक घात लगाकर।
तुम्हें घेरकर चट कर लेगा,
मगरमच्छ ये पूर्ण निगलकर।

हो जाए लाचार,
इस तरह, जुगत भिड़ानी है।

हों वज़ीर के ध्वस्त इरादे।
कुटिल चाल चल सकें न प्यादे।
इस बिसात का हर चौख़ाना,
एक सुरक्षित कोट बना दे।

निकट न फटके हार,
हरिक यूँ गोट जमानी है।


खुशबू के पल भीने से..


खुशबू के पल भीने से 
रंग चले निज गेह, सिखाकर
मत घबराना जीने से।
जंग छेड़नी है देहों को,
सूरज, धूप, पसीने से।

शीत विदा हो गई पलटकर।
लू लपटें हँस रहीं झपटकर।
वनचर कैद हुए खोहों में,
पाखी बैठे नीड़ सिमटकर।

सुबह शाम जन लिपट रहे हैं,
तरण ताल के सीने से।

तले भुने पकवान दंग हैं।
शायद इनसे लोग तंग हैं।
देख रहे हैं टुकुर-टुकुर वे,
फल, सलाद, रस के प्रसंग हैं।

मात मिली भारी वस्त्रों को,
गात सज रहे झीने से।

गोद प्रकृति की हर मन भाई।
दुपहर एसी कूलर लाई।
बतियाती है रात देर तक,
सुबह गीत गाती पुरवाई।

बाँट रहे गुल बाग-बाग में,
खुशबू के पल भीने से।


गीत कोकिला गाती रहना..


बने रहें ये दिन बसंत के,
गीत कोकिला गाती
रहना।

मंथर होती गति जीवन की,
नई उमंगों से भर जाती।
कुंद जड़ें भी होतीं स्पंदित,
वसुधा मंद-मंद मुसकाती।

देखो जोग न ले अमराई,
उससे प्रीत जताती
रहना।

बोल तुम्हारे सखी घोलते,
जग में अमृत-रस की धारा।
प्रेम-नगर बन जाती जगती,
समय ठहर जाता बंजारा।

झाँक सकें ना ज्यों अँधियारे,
तुम प्रकाश बन आती
रहना।

जब फागुन के रंग उतरकर,
होली जन-जन संग मनाएँ।
मिलकर सारे सुमन प्राणियों
के मन स्नेहिल भाव जगाएँ।

तब तुम अपनी कूक-कूक से
जय उद्घोष गुँजाती
रहना।


गुलमोहर की छाँव..



गुलमोहर की छाँव, गाँव में
काट रही है दिन एकाकी।

ढूँढ रही है उन अपनों को,
शहर गए जो उसे भुलाकर।
उजियारों को पीठ दिखाई,
अँधियारों में साँस बसाकर।

जड़ पिंजड़ों से प्रीत जोड़ ली,
खोकर रसमय जीवन-झाँकी।

फल वृक्षों को छोड़ उन्होंने,
गमलों में बोन्साई सींचे।
अमराई आँगन कर सूने,
इमारतों में पर्दे खींचे।

भाग दौड़ आपाधापी में,
बिसरा दीं बातें पुरवा की।

बंद बड़ों की हुई चटाई,
खुली हुई है केवल खिड़की।
किसको वे आवाज़ लगाएँ,
किसे सुनाएँ मीठी झिड़की।

खबरें कौन सुनाए उनको,
खेल-खेल में अब दुनिया की।

फिर से उनको याद दिलाने,
छाया ने भेजी है पाती।
गुलमोहर की शाख-शाख को
उनकी याद बहुत है आती।

कल्प-वृक्ष है यहीं उसे,
पहचानें और न कहना बाकी।


पंछी उदास हैं..



गाँवों के पंछी उदास हैं
देख-देख सन्नाटा भारी।

जब से नई हवा ने अपना,
रुख मोड़ा शहरों की ओर।
बंद किवाड़ों से टकराकर,
वापस जाती है हर भोर।

नहीं बुलाते चुग्गा लेकर,
अब उनको मुंडेर, अटारी।

हर आँगन के हरे पेड़ पर,
पतझड़ बैठा डेरा डाल।
भीत हो रहा तुलसी चौरा,
देख सन्निकट अपना काल।

बदल रहा है अब तो हर घर,
वृद्धाश्रम में बारी-बारी।

बतियाते दिन मूक खड़े हैं।
फीकी हुई सुरमई शाम।
घूम-घूम कर ऋतु बसंत की,
हो निराश जाती निज धाम।

गाँवों के सुख राख़ कर गई,
शहरों की जगमग चिंगारी।


कल्पना रामानी 


  • जन्म तिथि-6 जून 1951 (उज्जैन-मध्य प्रदेश) 
  • शिक्षा-हाईस्कूल तक 
  • रुचि- गीत, गजल, दोहे कुण्डलिया आदि छंद-रचनाओं में विशेष रुचि।  
  • वर्तमान में वेब की सर्वाधिक प्रतिष्ठित पत्रिका ‘अभिव्यक्ति-अनुभूति’ की सह संपादक। 
  • प्रकाशित कृतियाँ-नवगीत संग्रह-‘हौसलों के पंख’ 
  • निवास-मुंबई महाराष्ट्र  
  • ईमेल- kalpanasramani@gmail.com

सोमवार, 5 अक्तूबर 2015

कृष्णानंद चौबे की ग़ज़लें


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


अपने मुक़द्दर में नहीं..


मंदिरों में आप मन चाहे भजन गाया करें,
मैकदा ये है यहाँ तहज़ीब से आया करें


रात की ये रौनकें अपने मुक़द्दर में नहीं,
शाम होते ही हम अपने घर चले आया करें


साथ जब देता नहीं साया अँधेरे में कभी,
रौशनी में ऐसी शय से क्यूँ न घबराया करें


बन्द रहते हैं जो अक्सर आम लोगो के लिये,
अपने घर में ऐसे दरवाज़े न लगवाया करें


ये हिदायत एक दिन आयेगी हर स्कूल में,
मुल्क की तस्वीर बच्चों को न दिखलाया करें


क्यूँ नहीं आता है इन तूफ़ानी लहरों को शऊर,
कम से कम कागज़ की नावों से न टकराया करें


सफ़र डूब रहा है..


दुनिया की ले के खैर-ख़बर डूब रहा है,
तय कर लिया सूरज ने सफ़र डूब रहा है


हम मंदिरों-मस्जिद को बचाने में लगे हैं,
घर की है नहीं फ़िक्र के घर डूब रहा है


मँझधार में नेता जो दिखा, लोग ये बोले,
अच्छा है अजी डूबे अगर डूब रहा है


उस डूबने वाले के मुक़द्दर को कहें क्या,
तिनके का सहारा है मगर डूब रहा है


तस्वीर बनाते हैं जो कपड़ों के बिना ही,
उन काँपते हाथों से हुनर डूब रहा है


ख़ुशी भी नहीं..


हमारे चेहरे पे ग़म भी नहीं ख़ुशी भी नहीं,
अँधेरा पूरा नहीं पूरी रौशनी भी नहीं।


है दुश्मनों से कोई ख़ास दुश्मनी भी नहीं,
जो दोस्त अपने हैं उनसे कभी बनी भी नहीं।


मैं कैसे तोड़ दूँ दुनिया से सारे रिश्तों को,
अभी तो पूरी तरह उससे लौ लगी भी नहीं।


अजीब रुख़ से वो बातों को मोड़ देता है
कि जैसे बात ग़लत भी नहीं, सही भी नहीं


तुम्हारे पास हक़ीक़त में इक समन्दर है,
हमारे ख्व़ाब में छोटी-सी इक नदी भी नहीं।


कोई बताये ख़ुशी किसके साथ रहती है,
हमें तो एक ज़माने से वो दिखी भी नहीं।


लो फिर से आ गये बस्ती को फूँकने के लिये,
अभी तो पहले लगाई हुई बुझी भी नहीं।


अजीब बात है दीपावली के अवसर पर
करोड़ो बच्चों के हाथों में फुलझड़ी भी नहीं।


तुम्हारा नाम आया रात भर..


पूछिये मत क्यों नहीं आराम आया रात भर,
उनके आने का ख़याले-ख़ाम आया रात भर।


और लोगो की कहानी सुन के मैं करता भी क्या,
मेरा अफ़साना ही मेरे काम आया रात भर।


याद करने को ज़माने भर के ग़म भी कम न थे,
भूलने को बस तुम्हारा नाम आया रात भर।


मयकदे से तश्नालब लौटे थे शायद इसलिये
ख्व़ाब में रह-रह के ख़ाली जाम आया रात भर।


देखना है अब कहाँ रह पायेगी तौबा मेरी,
मेरे ख़्वाबों में उमरख़य्याम आया रात भर।


वक़्त कम है काम काफ़ी दोस्तो कुछ तो करो,
उम्र के ख़ेमे से ये पैग़ाम आया रात भर।


ख़ुद पर तो एतबार आये..


क्या ये मुमकिन नहीं भार आये,
और आये तो बार-बार आये।


आप पर एतबार कर तो लूँ,
पहले ख़ुद पर तो एतबार आये।


जिसने मुझको दिये थे ग़म ही ग़म,
अपनी ख़ुशियाँ उसी पे वार आये।


चार दिन की ये ज़िन्दगी का लिबास,
कुछ ने पहना है, कुछ उतार आये।


बेवफ़ा होंगे वो किसी के लिये,
मुझसे मिलने तो बार-बार आये।


ख्व़ाब को ख्व़ाब की तरह देखो,
फूल आये ये उसमे ख़ार आये।



पं. कृष्णानंद चौबे


  • जन्म : 5 अगस्त 1913 (फर्रुखाबाद)
  • निधन : 14 मार्च 2010 (कानपुर)
  • शिक्षा : स्नातक
  • जीवन : सन् 1953 से 1960 तक बनारस से प्रकाशित ‘अमृत पत्रिका’ दैनिक में उप-सम्पादक। सन् 1961 से 1980 तक उद्योग निदेशालय (उ.प्र.) कानपुर में ‘इंडस्ट्रीज़ न्यूज़ लेटर’ का सम्पादन। सन् 1990 में सेवानिवृत होने के उपरान्त जीवनपर्यंत दैनिक जागरण, कानपुर से सम्बद्ध रहे।
  • विशेष : साहित्य की विविध विधाओं यथा गीत, ग़ज़ल, हास्य-व्यंग्य, आलेख. समीक्षा एवं पत्रकारिता में निरंतर सृजनरत रहे।

पुस्तक समीक्षा-'हथेलियों में सूरज' (काव्य संग्रह)-मंजु महिमा





मुझे उड़ना ही होगा..



        'हथेलियों में सूरज' यूँ ही नहीं उग जाता, हथेलियों को इस
काबिल बनाना पड़ता है कि वे सूरज की गर्माहट,ऊर्जा तथा रौशनी को अपने भीतर
समेट सकें! मंजु 'महिमा' एक संवेदनशील कवयित्री है। नारी-सुलभ संकोच,
सहनशीलता, भद्रता ,गंभीरता, करुणा उनके व्यक्तित्व के अंग हैं और उनका
यही व्यक्तित्व उनकी ठहरी हुई सोच को जन्म देकर अनायास मन के भीतर के
कपाट खोलकर पाठक को उनसे बाबस्ता करता है, पाठक कविता के साथ-साथ चलते
हुए निरंतर उनका सानिध्य महसूस करता है।
            हथेलियों में उतरे हुए सूरज का बिंब उनके भीतर की रौशनी और
ऊर्जा है जिसे उन्होंने न जाने कितने-कितने अंधेरों से जूझकर अपने भीतर
समोया है। कवयित्री अपनी भाषा हिन्दी की ज़बरदस्त पक्षधर हैं, हिन्दी को
'तुलसी -क्यारे' के रूप में बिंबित करना उनकी अपनी भाषा के प्रति
आत्मीयता का स्पंदन है जो उनकी रगों में बह रहा है।
          नारी की स्वाभाविक संवेदनशीलता तथा करुणा से ओत-प्रोत मंजु
की कविता चाहे 'मुझे पतंग न बनाओ' हो, ‘चाहे चिड़िया न बनना’, हो या फिर
'माँ !आ अब लौट चलें' हो, सबमें नारी के स्वतन्त्र परन्तु एक ऐसे बंधन की
स्पष्ट छाप प्रदर्शित होती है जो मर्यादित स्वतंत्रता की चाह में भी एक
कोमल बंधन की आशा रखता है।
              'खूब छूट दो उड़ने की
              पर डोर से बांधे रखो अपनी
              तुम्हारे प्यार की डोर से बंधी
              तुम्हारी हथेलियों पर
              चुग्गा चुगने चली आऊँगी ।'

        यह उड़ने की चाह और साथ ही एक ही हथेली पर चुग्गा चुगना उनके
भीतर की कोमल संवेदना को पाठक के समक्ष अनायास ही एक ऐसी चिड़िया के समीप
ला खड़ा करता है जो पिंजरे से निकलकर अनंत अवकाश में अपने पर फैलाती तो है
पर विश्राम करने अपने पिंजरे में स्वेच्छा से अपनेपन के अहसास में लिपटी
लौट आती है। यह 'मुक्त-बंधन' की चाह तथा अपनेपन का गहरा अहसास उनकी
नारी-संवेदना को प्रखर करता है ।
        नारी-जीवन के विभिन्न आयामों को उद्घाटित करती हुई उनकी
कविताएं नारी-ह्रदय के कितने समीप हैं, यह उनकी कविताओं में बहुत स्पष्ट
है, ये अंतर को एक पावस अहसास से भर देती हैं। नारी के स्वतन्त्र
व्यक्तित्व की पक्षधर मंजु महिमा अपनी सीमाओं में रहकर अपने अधिकार के
लिए चुनौती देती दृष्टव्य होती हैं, कहती हैं ----
            'मुझे उड़ना ही होगा ,
            मैं बिना उड़े नहीं रह सकती
            मुझे देखना ही होगा
            मैं अनदेखा नहीं कर सकती ।'

        शिद्द्त के साथ अपनी इस भावना को सरेआम न केवल रखना  वरन  उस पर
जमकर पांव रखना तथा दृढ़ता से चलना उनकी श्रेष्ठ कविता से पूर्व उनकी एक
संवेदनशील श्रेष्ठ नारी के सम्मान को गौरवान्वित करते हैं ।
          मंजु की यह कोमल स्त्रीयोचित करुणा उनकी रचना 'माँ! अब लौट
चलें' में स्त्री की करुणा, आज के युग में भी बेचारगी की साक्षी बनकर
पाठक के समक्ष आ उपस्थित होती है। ''माँ अब लौट चलें' में उनके मन की गहराई में उतरी पीड़ा
कितने स्प्ष्ट शब्दों में मुखरित हुई है ----
            जहाँ तुम्हें सदैव
            औरत होने का कर्ज़ चुकाना पड़ता है ।
            और  इससे भी अधिक..
            तुम एक भोग्या हो,
            खर्चे की पुड़िया
            जब तुम पैदा हुईं थीं,
            तब थाली नहीं बजी थी...(कितनी गहन पीड़ा !!)
            तुम्हारे होने की खबर
            शोक-सभा में तब्दील हो गई थी...
            (सदियों से चला आ रहा शाश्वत सत्य )

        भीतर से पीड़ित, स्त्री के नैसर्गिक अहसास के सम्मान को महसूसते
हुए मंजु कभी भी कमज़ोर अथवा बेचारगी का जामा पहनकर करुणा तथा दया की
याचना नहीं करती दिखाई देतीं । वे अपने व्यक्तित्व के लिए हर पल एक खामोश
युद्ध के लिए तत्पर रही हैं इसीलिए वे अपने बच्चों की ढाल बनकर उनके
व्यक्तित्व को पुचकारती हुई उन्हें विमर्श देती हैं ----
            चिड़िया बनना मेरी नियति थी
            पर,मेरे बच्चों !
            तुम कभी ‘चिड़िया’ न बनना !

  साथ ही वे माँ को कितनी शिद्द्त से, साहस से भरोसा देती हुई दिखाई देती हैं ---
            माँ ! डरो  नहीं, मैं उतनी कमज़ोर नहीं ।
            जो दुनिया का सामना नहीं कर पाऊँगी ।

          मंजु जी की रचनाओं में मुझे वे सदैव एक कैनवास पर लिखे गए एक
चित्र की भांति प्रतीत हुई हैं जिनमें उनके प्रतबिंबित होने का अहसास हर
पल बना रहता है । 'प्रकृति के सानिध्य में' नैनीताल के चार प्रहरों को उन्होंने
जिस प्रकार से समय को  विभाजित किया है,वह उनकी स्त्री के प्रति एक गहरी
तथा कोमल अनुभूति का प्रतीक लगता है..
नैनीताल की झील उन्हें प्रात:काल में..अल्हड कन्या
मध्यान्ह में..सुघड़ गृहिणी 

संध्या में..भाल पर सिंदूरी टीका लगाए आतिथ्य करती प्रसन्नवदन सधवा 
रात्रि में..दुल्हन सी संवरी स्वयं पर मोहित समर्पण की आतुरता लिए 

कोमलांगी प्रतीत होती है ।


          जीवन के विभिन्न आयामों को सहेजे उनकी कविताएं चाहे इस संग्रह
में हों या न हों मुझे सदा उनकी पारदर्शिता एक झीना अहसास दिलाती हैं।
यही पारदर्शिता मैंने मंजु के व्यक्तित्व में सदा से पाई है जो उन्हें
एक अच्छी कवयित्री से भी पूर्व एक अच्छे संस्कारी इंसान के रूप में
उद्घाटित करती है । मेरे मन में, जीवन में कुछ भी अच्छा बनने से पूर्व एक
अच्छे इंसान होने का मोल बहुत ऊँचा है। मन के भीतर अपने शब्दों के
माध्यम से उतर जाने वाली यह कवयित्री अपने पारदर्शी स्नेहिल व्यक्तित्व
से भी सबको सदा जीतती आई है।
          हमारे हज़ारों सलाम
          हैं उनके नाम
          जो चलते नहीं..किसी के बनाए रास्तों पर
          बनाते हैं स्वयं अपनी राह
          और..छोड़ जाते हैं एक छाप
          दिलों की ज़मीन पर..
                    ( प्रणव भारती )

    स्वागत है 'हथेलियों पर उगते हुए सूरज' का जो हमें भी एक नयी ऊर्जा तथा दिशा देगा मंजु महिमा
के साहित्यिक गौरवपूर्ण कदम का स्वागत है। मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि  इस पुस्तक में संगृहित उनकी कविताएं पाठक को उनके अहसासों से जुड़ने के लिए बाध्य कर देंगी..आमीन !
     
  • पुस्तक-.'हथेलियों में सूरज' (काव्य संग्रह)
  • रचनाकार-मंजु महिमा
  • प्रकाशक-नव्या प्रकाशन, सुरेन्द्र नगर, गुजरात.

डॉ.प्रणव भारती


(कथाकार एवं गीतकार),
पूर्व फेकल्टी,
एन.आई.डी एवं फिल्म इंस्टिट्यूट,
अहमदाबाद (गुजरात)