सोमवार, 21 दिसंबर 2015

दो कविताएं-पुष्पराज चसवाल


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार



जीवन-ज्योति 


आओ
हम उन्हें
एक और ज़िन्दगी की
राह दिखाएँ
उन्हें
जो जीने के रास्ते
भूल चुके हैं या
बंद समझ चुके हैं,
आओ
हम उन्हें
बताने की कोशिश करें
जीवन-ज्योति
क्रिश्चन कैलेंडर में
या
विक्रमी संवत में
क़ैद, मापदंड नहीं
जीवन-ज्योति
अखंड ज्योति है
सहस्र सूर्यों से परे
क्षितिज की सभी
सीमाओं के पार
अलौकिक नृत्य में
मगन, पार
मानवीय पकड़ के।


दिशा-ज्ञान 


ओ धरा के जीव,
युगों से बनकर व्योम-पक्षी
व्योम-फूल से बातें करते -
थके नहीं हो क्या?

आदिकाल से
अंतकाल तक
विचरते
एक छोर से
सहस्र छोर तक भटकते
है कौन
चिरंतन सत्य
या विलक्षण सत्ता
तुमने जाना?

खो जाने में,
जो मिलता है -
देख चुके हो!
पा जाने में,
क्या मिलता है-
कैसे जानो?

मानव हो तुम,
मानवी है धरा।
लिए कर में -
अमृत-कलश,
कब से तुम्हें पुकारती
अंतरंग निहारती,
पालकी सजी-सजी,
आ रही पहचान-सी,

भ्रम को छोड़ो!
लौट भी आओ
इस धरती से
नाता जोड़ो।
युगों से जिसको
ढूंढ रहे हो,
पा जाओगे
क्षण भर में ही,
वह अमरत्व -
वह दुर्लभ जीवन रस।



पुष्प राज चसवाल


  • जन्म तिथि: 1944-06-13
  • जन्म स्थान: गाँव ददवाल, ज़िला रावलपिंडी (अब पाकिस्तान में)
  • शिक्षा: B.A., M.B.A.
  • प्रकाशित कृतियाँ: "दिशाएं" (काव्य- संग्रह, १९९१), "संवेदनाओं के घेरे" (काव्य -संग्रह, २००१) "कर्म-क्षेत्र" (उपन्यास, २००९)
  • लेखन: विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियां निरंतर प्रकाशित मुख्यतः हरिगंधा (पंचकूला, हरियाणा), शब्द सरोकार (पटियाला,पंजाब) इंगित (ग्वालियर, मध्य प्रदेश), सफ़र ज़ारी है (तश्नगाने-अदब, दिल्ली),  पुष्पगन्धा (अम्बाला,हरियाणा), वीर प्रताप (जालंधर,पंजाब), दैनिक ट्रिब्यून (चंडीगढ़, यू टी);
  • पी.पी. प्रकाशन द्वारा ६ किताबों के प्रकाशन में सक्रिय भूमिका; हिंदी के त्रैमासिक ई-पत्रिका 'अनहद कृति' (www.anhadkriti.com) में सक्रिय लेखन एवं सम्पादन।
  • जालघर पर 'स्वर्गविभा' में कविताएं।
  • सम्प्रति: बैंक ऑफ़ बड़ोदा से २००१ में प्रबंधक पद से अवकाश-प्राप्त; पी. पी. प्रकाशन में मुख्य-संस्थापक; वर्ष २०१३ में जीवनसंगिनी डॉ प्रेम लता चसवाल 'प्रेम पुष्प'  के साथ पी.पी.प्रकाशन (अम्बाला, शहर) के अंतर्गत - हिंदी साहित्य, कला एवं सामजिक सरोकारों की ई-पत्रिका 'अनहद-कृति' की संस्थापना और अब 'अनहद कृति' ई-त्रैमासिकी में सक्रीय लेखन एवं सह-सम्पादन।
  • रुचियाँ: इतिहास पठन, साहित्य पठन-पाठन, वाद-विवाद, काव्य पाठ, और नाट्य मंचन के साथ राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सरोकारों के बारे में जानकारी पाने में गहरी रूचि; महत्वपूर्ण ऐतिहासिक हस्तियों के भाषणों का अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद। 
  • सम्मान: तीसरी कक्षा में ही १९५३ (1953) में प्रधान-मंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू व इंगलैंड के प्रधान-मंत्री हेराल्ड मैकमिलन के समक्ष 'आदर्श ग्राम'  में लघु नाटिका में नायक की भूमिका, चौथी कक्षा से लेकर स्नातक की परीक्षाओं में उत्कृष्टता छात्रवृत्ति से सम्मानित, कॉलेज के दिनों में यूथ-फेस्टिवल एवं अंतर-महाविद्यालय काव्य-पाठ, भाषण प्रतियोगिताओं व नाट्य-मंचन में कई बार प्रथम पुरस्कार, विशेषकर उल्लेखनीय है वर्ष १९६५ में बटाला में आयोजित अंतर-महाविद्यालय काव्य-पाठ प्रतियोगिता में पंजाबी के कवि शिरोमणि शिव कुमार बटालवी द्वारा पुरस्कृत, पंजाब विश्वविद्यालय, यूथ वेलफेयर विभाग द्वारा आयोजित प्रशिक्षण-कैम्प के बाद कॉलेज में यूथ लीडरशिप ऐसोसिएशन (वाई.एल ए) के संस्थापक प्रधान १९६५ (1965),  बैंक ऑफ़ बड़ोदा, दिल्ली अंचल द्वारा हिंदी-दिवस पर आयोजित समारोह में लगातार तीन वर्ष तक अनुवाद में प्रथम पुरस्कार १९८४-८६ (1984-86); "दिशाएं" १९८८ (1988)एवं "संवेदनाओं के घेरे" २००१ (2001) का प्रकाशन हरियाणा साहित्य अकादमी के सहयोग से; हरियाणा साहित्य अकादमीद्वारा आयोजित हरियाणा भ्रमण यात्रा में अम्बाला के प्रतिनिधि रचनाकार के रूप में प्रतिनिधित्व, बैंक ऑफ़ बड़ोदा कर्मचारी संगठन (पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर,चंडीगढ़ क्षेत्र) में पंद्रह वर्ष तक प्रधान एवं महासचिव के रूप में सक्रिय भूमिका;  वर्ष १९७०-८० (1970 -80) के दशक में गुड़गांव में आयोजित अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों में सक्रिय भूमिका, वर्ष १९७०-८० (1970-80) व १९८०-९० (1980-90) में गुडगाँव, करनाल, अम्बाला में कई श्रमिक संगठनों में भागीदारी; कर्मचारी संगठन सभाओं में प्रभावशाली वक्ता; २००५ (2005) में यूनिवर्सिटी ऑफ़ विस्कॉन्सिन (संयुक्त राज्य अमरीका) में आयोजित "कांफ्रेंस ओन साउथ एशिया" में "लिट्रेसी इंक्रीज़िज़ द पेस ऑफ़ डेवेलपमेंट: एन इंडियन एग्ज़ाम्पल" वार्ता में मुख्य वक्ता; ऑल इंडिया रेडियो शिवपुरी, ग्वालियर (मध्य प्रदेश) तथा कुरुक्षेत्र (हरियाणा) से काव्य-पाठ एवं वार्ता का प्रसारण।
  • ईमेल: prchaswal@gmail.com

सोमवार, 7 दिसंबर 2015

मुकम्मल घर व अन्य कविताएं- डॉ सुधा उपाध्याय


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


             मुकम्मल घर



                बहुत सी उम्मीदों का असबाब बांधकर ,

                अम्मा मैंने एक घर बनाया है ...

                रहूंगी मैं वहां तुम्हारे साथ ,

                रहेगी मेरी बिटिया वहीं मेरे साथ

                घर के बाहर लगी होगी तख्ती तुम्हारी नातिन की

                अम्मा मैंने एक घर सजाया है...

                सजेगी फर्श तुम्हारी निश्छल मुस्कराहट से

                रंगेगी हर दीवार हमारे कहकहों से

                लगाउंगी घर के कोनों में बड़ा सा आइना

                जहाँ दिखेंगे हमें हमारे पुरुष

                अम्मा मैंने एक घर बसाया है ....

                आसमान की अलगनी पर सुखाउंगी तुम्हारी धोती

                अपनी सलवार कमीज़ और बिटिया की शर्ट पैंट

                आँगन में बिराजेंगे तुम्हारे शालिग्राम भगवान्

                रंसोयी में महकेगा सालन तुम्हारे हाँथ का

                छत पर सुखायेंगे हम अपने अपने आंसू

                बस तुम लौट आवो अम्मा ,...

                हम भी बना सकती हैं

                सजा सकती हैं

                बसा सकती हैं

                एक मुकम्मल घर

                   

             बुरा हुआ,...जो,...सो हुआ



                अब इस से बुरा और क्या होगा ?

                कि नन्हीं चिर्रैया अपने ही रंग रूप से

                है इन दिनों परेशान

                अपने हर हाव भाव पर ,

                फुदक चहक पर हो रही है सावधान

                उसने ,खुदने अपने दाने चुगने ,

                आँगन आँगन ,फुर्र फुर्र

                उड़ने पर लगा ली है पाबंदी

                समेट ली है अपनी हर मोहक अदा.....

                बेपरवाह पंखों को समेट

                उड़ जाना चाहती है नन्हीं चिर्रैया....

                तिनके तिनके जोड़ कर

                नहीं बसना चाहती कोई घोंसला

                आंधी तूफ़ान ,तेज़ बारिश से भी

                ज्यादा डरने लगी है

                उन बहेलियों से जो पुचकार कर दाना खिलते हैं

                रंग बिरंगी बर्ड हाउस तंग देते हैं रेलिंगों पर

                वहां कोई आशियाना नहीं बसना चाहती

                नन्हीं चिर्रैया

                फुसलाने ,बहलाने के सम्मोहन से

               आज़ाद होना चाहती है नन्हीं चिर्रैया

                डरने लगी है बेहिसाब अपने ही रंग रूप

                घाव भाव फुदक चहक...

                हर अदा पर अब नन्हीं चिर्रैया ...

                 
            

             आखिर कब



                एक ही सपना देखती हूँ आजकल

                मैं एक नन्हे बच्चे में तब्दील हो चुकी हूँ

                हाँथ में कूची और रंग लिए

                हंस हंस कर मैंने नीले नीले

                पहाड़ रंग डाले

                आकाश पर समुद्र और धरती पर

                सूरज उतार लायी

                सारे पंछी ज़मीन पर रेंगने लगे

                हांथी घोड़े ऊंट उड़ने लगे

                चंदा मामा नदी में नहा रहे थे

                सूरज चाचू कपडे धोने लगे

                आकाश में हरी हरी दूब उग आई

                वहां रेत थी, ईंटें भी, झोपड़ियाँ भी

                बहुत उड़ने वालों को अपनी औकात समझ में आरही थी

                सारे बच्चों की गेंदें आकाश में उछाल रही थीं

                चलो मैदान ना सही आकाश तो था खेलने की खातिर

                पर नींद यहीं आकर खुल जाती है ....

                आखिर कब सपना पूरा होगा?

  .

क्या आप जानते हैं..?



पिंजरा भर देता है मन में अनंत आकाश ,

हर बंधन से मु क्ति की छट पटा हट

जड़ता और रिवायतों से विरोध भाव ,

समस्त सुकुमार कोमल समझौतों के प्रति घृणा

यह तो पिंजरे में बंद चिरिया से पूछो ,

क्यूंकि वही जानती है आज़ादी के सही मायने

वो तरस खाती है उस आज़ाद चिरिया पर

जो कोमल घास पर फुदक फुदक कर

छोटे छोटे कीड़े मकौडों को आहार बनाती है

आज़ादी के सच्चे अर्थ नही जानती

और लम्बी तान गाती है ,

अपने में मशगूल

अपना आस पास भुला  देती है

उसके गीत में राग अधिक है वेदना कम

वह अपनी मोहक आवाज़ से

मूल मंत्र भी बिसरा देती है

यहाँ पिंजरे में बंद चिरिया की तान

दूर दूर चट्टानी पहाड़ों को भी

दरका सकती है

उसके गीत में दर्द से बढ़कर कुछ है

जिसे समझ सकती है

केवल पिंजरे की चिरिया...


अम्मा



मेरी हर वो जिद नाकाम ही रही

जो तुम्हारे बिना सोने जागने उगने डूबने

बुनने बनाने बड़े होने या.... 

सब कुछ हो जाने की थी

अब जैसे के तुम नहीं हो कहीं नहीं हो

कुछ नहीं हो पाता तुम्हारे बगैर

नींदों में सपनो का आना जाना

जागते हुए नयी आफत को न्योता देना

चुनौतियों को ललकारना

अब मुनासिब नहीं .


सहेज कर रखा है..



मैंने आज भी सहेज कर रखा है

वह सबकुछ जो अम्मा ने थमाई थी

घर छोड़ कर आते हुए

तुम्हारे लिए अगाध विश्वास

सच्ची चाहत ,धुले पूछे विचार

संवेदनशील गीत ,कोयल की कुहुक

बुलबुलों की उड़ान ,ताज़े फूलों की महक


तितली के रंग ,इतर की शीशी

कुछ कढाई वाले रुमाल

सोचती हूँ हवाई उड़ान भरते भरते

जब तुम थक जाओगे

मैं इसी खुरदुरी ज़मीन पर तुम्हे फिर मिल जाउंगी

जहाँ हम घंटों पसरे रहते थे मन गीला किये हुए

वे सब धरोहर दे दूँगी ख़ुशी से वे तुम्हारे ही थे

अक्षत तुम्हारे ही रहेंगे ....



डॉ सुधा उपाध्याय


बी-3, स्टाफ क्वार्टर्स,

जानकी देवी मेमोरियल कॉलेज (दि.वि.वि),

सर गंगाराम अस्पताल मार्ग,

ओल्ड राजेंद्र नगर,

नई दिल्ली-110060

फोन-09971816506



डॉ सुधा उपाध्याय



कई विधाओं में स्वतंत्र लेखन करती रही हैं। समसामयिक अनेक प्रतिष्ठित
पत्र-पत्रिकाओं में कई आलेख, कहानी, कविताएं प्रकाशित और पुरस्कृत।
विश्वविद्यालय स्तर पर कई पुरस्कार भी अर्जित किए हैं। अध्ययन-अध्यापन के
अलावा अनेक गोष्ठियों, परिचर्चाओं और वाद-विवाद में सक्रिय भागीदारी रही
सुल्तानपुर (उ.प्र.) में जन्मी डॉ सुधा उपाध्याय गद्य और पद्य दोनों है। ‘
बोलती चुप्पी’ (राधाकृष्ण प्रकाशन) कविताओं का संकलन बेहद चर्चित
रहा है। समकालीन हिंदी साहित्य, साक्षात्कार, कथाक्रम, आलोचना,
इंद्रप्रस्थ भारती, सामयिक मीमांसा आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं
प्रकाशित। दिल्ली विश्वविद्यालय के जानकी देवी मेमोरियल कॉलेज में हिंदी
विभाग की वरिष्ठ व्याख्याता के रुप में कार्यरत हैं। हाल ही में प्रकाशित
पुस्तक ‘हिंदी की चर्चित कवियित्रियां’ नामक कविता संकलन में कविताएं
प्रकाशित हुई हैं।

पुस्तक चर्चा: सपने ऒर आत्म भरोसे की कविताएं: 'सरहदें' -दिविक रमेश



       

                             'सरहदें' (कविता-संग्रह)-सुबोध श्रीवास्तव 


    कवि सुबोध श्रीवास्तव की कविताएं गाहे-बगाहे पढ़ता रहा हूं। अपने दूसरे कविता-संग्रह 'सरहदें' की पांडुलिपि भेजते समय उन्होंने अपने पहले प्रकाशित संग्रह 'पीढ़ी का दर्द' की प्रति भी भेज दी। उनके संग्रहों ऒर कविताओं को पढ़ते समय यह जानकर अच्छा लगा कि सुबोध मात्र कवि ही नहीं बल्कि एक सजग पत्रकार ऒर कहानी, व्यंग, निबंध आदि विधाओं के भी लेखक हॆं। इससे उनकी बहुविध प्रतिभा का भी पता चलता हॆ ऒर अनुभव के दायरे का भी। अच्छा यह जानकर भी लगा कि उनके पहले ही संग्रह की कविताओं ने उन्हें डा.गिरिजा शंकर त्रिवेदी, कृष्णानन्द चॊबे, डॉ. यतीन्द्र तिवारी, गिरिराज किशोर ऒर् नीरज जॆसे प्रशंसक दिला दिए। अत: कानपुर के इस कवि को प्रारम्भ में ही प्रयाप्त प्रोत्साहन ऒर स्नेह मिल गया। डॉ. यतीन्द्र ने पत्रकार होने के नाते सुबोध की सामाजिक सहभागिता को रेखांकित किया हॆ। साथ ही उनकी रचनाओं में व्यक्ति की संवेदनाओं का सार्थक साक्षात्कार भी निहित माना हॆ। तमाम कविताओं को पढ़कर एक बात तो सहज रूप में सिद्ध हो जाती हे कि इस कवि का मिजाज सोच या कला के उलझावों का नहीं हॆ। जब जो अनुभव में आया उसकी सहज ऒर सच्ची अभिव्यक्ति करने में इसे एकदम गुरेज नहीं हॆ। वस्तुत: यह कवि अपनी धुन का पकका लगता हॆ--कुछ-कुछ अपनी राह पर, अपनी मस्ती में चलने का कायल। सबूत के लिए, पहले संग्रह में उनकी  एक कविता हॆ- कविता के लिए। कविता यूं हॆ- तुम,/ अपनी कुदाल/चलाते रहो,/ शोषण की बात सोचकर/रोकना नहीं/अपने-/यंत्रचालित से हाथ/वरना,/मॊत हो जाएगी/कविता की। इस सोच के कवि के पास आत्म भरोसा, सपना ऒर कभी-कभी अपने भीतर भी झांकने ऒर कमजोरियों को उकेरने का माद्दा हुआ करता हॆ। वह झूठी ऒर भावुक आस बंधाने से भी बचा करता हॆ। यथार्थ का दामन न छोड़ता हॆ ऒर न छोड़ने की सलाह देता हॆ।यथार्थ कविता की ये पंक्तियां पढ़ी जा सकती हॆं-पहाड़ से टकराने का/तुम्हारा फॆसला/अच्छा हॆ/शायद अटल नहीं/क्योंकि/कमज़ोर नहीं होता/पहाड़,/न ही अकेला/ उस तक पहुंचते-पहुंचते/कहीं तुम भी,/शामिल हो जाओ/उसके-/प्रशंसक की भीड़ में। अच्छी बात हॆ कि दूसरे संग्रह तक पहुंचकर भी इन बातों से कवि ने मुंह नहीं मोड़ा हॆ।

    'सरहदें' की कविताएं नि:संदेह कवि का अगला कदम हॆ। यह संग्रह अनुभव की विविधता से भरा हॆ, लेकिन दृष्टि यहां भी कुल मिलाकर सकारात्मक हॆ। वस्तुत: कवि के पास एक ऎसी अहंकार विहीन सहज ललक हॆ, बल्कि कहा जाए कि सक्रिय जीवन की सहज समझ हॆ जो उसे लोगों से जुड़े रहने की उचित समझ देती हॆ--हमें मिलकर/ बनानी हॆ/ इक खूबसूरत दुनिया/ हां, सहमुच/बगॆर तुम्हारे/ यह सब संभव भी तो नहीं। इस कवि में अपनी राह या प्रतिबद्धता को लेकर कोई दुविधा नहीं हॆ-मॆं घुलना चाहता हूं/खेतों की सोंधी माटी में/गतिशील रहना चाहता हूं/ किसान के हल में/ खिलखिलाना चाहता हूं/ दुनिया से अनजान/खेलते बच्चों के साथ/हां, चहचहाना चाहता हूं/सांझ ढले/घर लॊटते/पंछियों के संग-संग/चाहत हॆ मेरी/कि बस जाऊं वहां-वहां/जहां/सांस लेती हॆ जिन्दगी। अनेक कविताएं ऎसी हॆं जो उम्मीद ऒर आत्मविश्वास की अलख को जगाने का काम करती हॆं। यह काम इसलिए ऒर भी महत्त्व का हो जाता हॆ क्योंकि कवि यथार्थ के कटु पक्ष से अपरिचित नहीं हॆ। मोहभंग की स्थितियों से भी अनजान नहीं हॆ। तभी न यह समझ उभर कर आ सकी हॆ -लॊट भले ही आया हूं/मॆं/लेकिन/हारा अब भी नहीं। वस्तुत:, इस संदर्भ में संकलन की एक अच्छी कविता फिर सृजन को भी पढ़ा जाना चाहिए। यह कवि सपने के मूल्य को भी स्थापित करता हे क्योंकि सपने-/जब भी टूटते हॆं/"लोग"/ अक्सर दम तोड़ देते हॆं। ऒर यह भी-उम्मीदें हमेशा तो नहीं टूटतीं।यह कवि बार बार बच्चे अथवा बच्चे की मासूमियत की ओर लॊटता हॆ क्योंकि बच्चा ही हॆ जो अपने को तहस-नहस की ओर ले जाती मनुष्यता को बचा सकता हॆ। इस दृष्टि से जब एक दिन कविता पढ़ी जा सकती हॆ। सरहदें पांच की ये पंक्तियां ऒर भी गहरे से इसी भाव को बढ़ाते हुए अपनी-अपनी, तरह-तरह की सरहदों में कॆद हो चुके मनुष्य की संवेदना को झकझोर सकती हॆं--विश्वास हॆ मुझे/ जब किसी रोज़/ क्रीडा में मग्न/ मेरे बच्चे/ हुल्लड़ मचाते/ गुजरेंगे करीब से/ सरहद के/ एकाएक/ उस पार से उभरेगा/ एक समूह स्वर/ "ठहरो!"/ खेलेंगे हम भी/ तुम्हारे साथ.../ एक पल को ठिठकेंगे/फिर सब बच्चे/ हाथ थाम कर/ एक दूसरे का/ दूने उल्लास से/ निकल जाएंगे दूर/ खेलेंगे संग-संग/ गांएंगे गीत/प्रेम के, बंधुत्व के/ तब न रहेंगी सरहदें/ न रहेंगी लकीरें/ तब रहेंगी/ सिर्फ..सिर्फ...सिर्फ.। संग्रह की एक
विशिष्टता इसमें संकलित 'सरहदें' शीर्षक से 11 कविताएं भी हॆं। कहीं- कहीं कवि दार्शनिक होकर भीतरी सत्य को उकेरता भी नजर आता हॆ, जॆसे 'अंतर' कविता में।  कोमल निजी एहसासों कि कुछ कविताएं, जॆसे एहसास, इंतज़ार आदि कविताएं भी पाठकों का ध्यान खींच सकती हॆं। पाठक पाएंगे कि अपनी भाषा पर कवि कोई अतिरिक्त मुलम्मा नहीं चढ़ाता। यूं कुछ खूबसूरत बिम्ब आदि पाठक को सहज ही सहभागी बनाने में समर्थ हॆं--लेकिन/ खिड़की पर/ बॆठे धूप के टुकड़े से/नहाया/ सफ़ेद कबूतरों का जोड़ा।

    यहां मॆंने कुछ ही कविताओं के माध्यम से पाठकों को इस संकलन के पढ़े जाने की जरूरत को रेखांकित किया हॆ। मुझे विश्वास हॆ इस संग्रह की कविताएं अपने पाठकों को अपना उचित भागीदार बनाने में समर्थ सिद्ध होंगी।

दिविक रमेश


बी-295, सेक्टर -20,
नोएडा-201301



  • पुस्तक-सरहदें/ कविता संग्रह
  • कवि-सुबोध श्रीवास्तव
  • पृष्ठ-96
  • मूल्य-120 रुपये 
  • बाईंडिंग-पेपरबैक
  • प्रकाशक-अंजुमन  प्रकाशन, इलाहाबाद
  • ISBN12: 9789383969722
  • ISBN10: 9383969722
  • http://www.anjumanpublication.com