सोमवार, 11 अप्रैल 2016

नाज़िम हिक़मत की कविताएँ


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


मेरी कविता के बारे में


मेरे पास सवारी करने के लिए
चाँदी की काठी वाला अश्व न था
रहने के लिए कोई पैतृक निवास न था
न धन दौलत थी और न ही अचल सम्पत्ति
एक प्याला शहद ही था जो मेरा अपना था
एक प्याला शहद
जो आग की तरह सुर्ख़ था !
मेरा शहद ही मेरे लिए सब कुछ था
मैनें अपनी धन दौलत
अपनी अचल सम्पदा की रखबाली की
हर क़िस्म के जीव-जन्तुओं से उसकी रक्षा की
मेरे सहोदर, तनिक प्रतीक्षा तो करो
यहाँ मेरा आशय
मेरे शहद भरे पात्र से ही है
जैसे ही मैं
अपना पात्र शहद से भर लूँगा
मक्खियाँ टिम्बकटू से चलकर
इस तक आएँगी !


कुछ सलाह उनके लिए जो उद्देश्य के लिए जेल में हैं


गर्दन पर फन्दा कसने के बजाय
यदि धकेल दिया जाए तुम्हें काल-कोठरी में
महज़ इसलिए
कि दुनिया के लिए, अपने देश के लिए,
अपनों के लिए उम्मीद नही छोड़ी तुमने
यदि ज़िन्दगी के बाक़ी बचे दस-पन्द्रह वर्षों में भी
तुम्हारे साथ यही सुलूक होता रहे
तो तुम यह भी नही कह पाओगे कि अच्छा होता
जो मुझे रस्सी के छोर पर एक झण्डे की तरह टाँग दिया जाता
किन्तु तुम्हें डटे रहना होगा और जीना होगा
वास्तव में यह तुम्हें ख़ुशी नही दे सकता
लेकिन तुम्हारा यह परम कर्तव्य है
दुश्मन का विरोध करने के लिए तुम
एक दिन और जियो
मुमकिन है कि
कुएँ के तल से आती आवाज़ की तरह
तुम्हारा अन्तर्मन भी अकेलेपन से भर उठे
किन्तु दूसरी ओर
दुनिया की हड़बड़ी देख
भीतर ही भीतर सिहर उठोगे तुम
बाह्य जगत में एक पत्ती भी
चालीस दिनों के अन्तराल पर निकलती है
अन्तर्घट से आती आवाज़ के लिए प्रतीक्षा करना
दुःख भरे गीत गाना
या पूरी रात छत ताकते हुए जागते रहना
भला तो है किन्तु डरावना भी है
हर बार हजामत बनाते हुए
अपने चेहरे को देखो !
भूल जाओ अपनी उम्र !
दुश्मन से सतर्क रहो
और मधुमास की रातों के लिए
रोटी का आख़िरी टुकड़ा खाना
हमेशा याद रखो
और कभी मत भूलो
दिल से खिलखिलाना !
कौन जानता है
वह महिला जिसे तुम प्रेम करते हो
कल तुम्हें प्रेम करना ही छोड़ दे
मत कहना यह कोई बड़ा मसला नही है
यह मनुष्य के लिए
मन की हरी डाली तोड़ देने जैसा होगा
मन ही मन गुलाबों और बाग़ीचों के बारे में
सोचते रहना फिजूल है
वहीँ समन्दर और पर्वतों के बारे में सोचना उत्तम होगा
बिना रुके पढ़ते-लिखते रहो
और मैं तुम्हें बुनने और
दर्पण बनाने की सलाह भी दूँगा
मेरा आशय यह कतई नही है
तुम दस या पन्द्रह वर्ष
जेल में नही रह सकते
इससे कहीं ज़्यादा .....
तुम कर सकते हो
जब तक
तुम्हारे हृदय के बाईं ओर स्थित मणि
अपनी कान्ति न गँवा दे !

(अंग्रेज़ी से अनुवाद : नीता पोरवाल)


पुस्तक समीक्षा: ‘सरहदें’-कवि कलम की चाह लेकर सर हदें-आचार्य संजीव सलिल




मूल्यों के अवमूल्यन, नैतिकता के क्षरण तथा संबंधों के हनन को दिनानुदिन सशक्त करती तथाकथित आधुनिक जीवनशैली विसंगतियों और विडंबनाओं के पिंजरे में आदमी को दम तोड़ने के लिये विवश कर रही है। कवि-पत्रकार सुबोध श्रीवास्तव की कविताएँ बौद्धिक विलास नहीं, पारिस्थितिक जड़ता की चट्टान को तोड़ने में जुटी छेनी की तरह हैं। आम आदमी अविश्वास और निजता की हदों में कैद होकर घुट रहा है। सुबोध जी की कविताएँ ऐसी हदों को सर करने की कोशिश से उपजी हैं। कवि सुबोध का पत्रकांर उन्हें वायवी कल्पनाओं से दूरकर जमीनी सामाजिकता से जोड़ता है। उनकी कविताएँ अनुभूत की सहज-सरल अभिव्यक्ति करती हैं। वर्तमान नकारात्मक पत्रकारिता के समय में एक पत्रकांर को उसका कवि आशावादी बनाता है।

सब कुछ खत्म/ नहीं होता
सब कुछ/ खत्म हो जाने के बाद भी
बाकी रह जाता है/कहीं कुछ
फिर सृजन को।
हाँ, एक कतरा उम्मीद भी/ खड़ी कर सकती है
हौसले और विश्वास की/ बुलंद इमारत।

अपने नाम के अनुरूप् सुबोध ने कविताओं को सहज बोधगम्य रखा है। वे आतंक के सरपरस्तों को न तो मच्छर के दहाडने की तरह नकली चुनौती देते हैं, न उनके भय से नतमस्तक होते हैं अपितु उनकी साक्षात शान्ति की शक्ति और हिंसा की निस्सारिता से कराते हैं-

तुम्हें/ भले ही भाती हो
अपने खेतों में खड़ी/ बंदूकों की फसल
लेकिन-/ मुझे आनंदित करती है
पीली-पीली सरसों/ और/दूर तक लहलहाती
गेहूं की बालियों से उपजता/ संगीत।
तुम्हारे बच्चों को/ शायद
लोरियों सा सुख भी देती होगी
गोलियों की तड़तड़ाहट/ लेकिन/सुनो
कभी खाली पेट नहीं भरा करती
बंदूकें/सिर्फ कोख उजाड़ती हैं।

सुबोध की कविताएँ आलंकारिकता का बहिष्कार नहीं करतीं, नकारती भी नहीं पर सुरुचिपूर्ण तरीके कथ्य और भाषा की आवश्यकता के संप्रेषण को अधिक प्रभावी बनाने के लिये उपकरण की तरह अनुरूप उपयोग करती हैं।

उसके बाद/ फिर कभी नहीं मिले/ हम-तुम
लेकिन/ मेरी जिन्दगी को/ महका रही है
अब तक/ खुशबू/तेरी याद की
क्योकि/ यहाँ नहीं है/ कोई सरहद।

‘अहसास’ शीर्षक अनुभाग में संकलित प्रेमपरक रचनाएँ लिजलिजेपन से मुक्त और यथार्थ के समीप हैं।

आँगन में/जरा सी धूप खिली
मुंडेर पे बैठी/ चिडि़या ने/फुदककर
पंखों में छिपा मुंह /बाहर निकाला
और/चहचहाई/तो यूं लगा/कि तुम आ गये।

कवि मानव मन की गहराई से पड़ताल कर, कड़वे सच को भी सहजता और अपनेपन से कह पाता है-

जितना/खौफनाक लगता है/सन्नाटा
उससे भी कहीं ज्यादा/डर पैदा करता है
कोई/खामोश आदमी।
दोनों ही स्थितियां /तकरीबन एक सी हैं
फर्क सिर्फ इतना है कि/सन्नाटा/टूटता है तो
फिर पहले जैसा हो जाता है/माहौल/लेकिन
चुप्पी टूटने पे/ अक्सर/बदला-बदला सा
नज़र आता है/ आदमी।

संग्रह के आकर्षण में डॉ रेखा निगम, अजामिल तथा अशोक शुक्ल ‘अंकुश’ के चित्रों ने वृद्धि की है। प्रतिष्ठित कलमकार दिविक रमेश जी की भूमिका सोने में सुहागे की तरह है।

  • सरहदें (कविता संग्रह)-सुबोध श्रीवास्तव/ ISBN 978-93-83969-72-2 / प्रथम संस्करण-2016 / मूल्य 120 रु.
  • प्रकाशक-अंजुमन प्रकाशन, 942 आर्य कन्या चैराहा, मुटठीगंज, इलाहाबाद 211003,फ़ोन-+91-9453004398
  • कवि संपर्क- 'मॉडर्न विला', 10/518, खलासी लाइंस, कानपुर (उ.प्र.)-208001, फ़ोन-+91-9305540745


समीक्षक: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 


'समन्वयम' 204, विजय अपार्टमेंट,
नेपियर टाउन, जबलपुर-482001
मो. 09425183244
ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com

सोमवार, 7 मार्च 2016

मैं ब्रह्मा हूँ एवं अन्य कविताएं-दिव्या माथुर


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


मैं ब्रह्मा हूँ



मैं ब्रह्मा हूँ
ये सारा ब्रह्मांड
मेरी ही कोख से जन्मा है
पाला है इसे मैंने
ढेर सा प्यार-दुलार देकर
और ये मेरे ही जाए
मेरी ही गोद का
बँटवारा करने पर तुले हैं
चिंदी चिंदी कर डाला है
मेरा आँचल
युद्ध चल रहा है 
मेरी ही गोद में
ग़रीबों को कुचल रहें हैं अमीर
कमज़ोरों को धमका रहे हैं बलशाली
मैं किसके संग रहूँ
या किसको सही कहूँ
जिसको भी समझाना चाहूँ
वह ही विरुद्ध हो जाता है
’बहकावे में आ जाती हूँ’
मुझपर इल्ज़ाम लगाता है
एक दिन मुझसे जगह पलटें
ता जानेंगे दुविधा माँ की
क्या सह पायेंगे पल भर भी
सतत वे पीड़ा ब्रह्मा की?


तेरे जाने के बाद..


जब तुम घर आते थे शाम को
दिल की धड़कन थम जाती थी
झट दौड़ के मुन्नी कमरे के
किसी कोने में छिप जाती थी
टूटे फूटे अब दरवाज़े
चौखट तो है खिड़कियाँ नहीं
टेढ़े मेढ़े बर्तन हैं बचे
मार नहीं झिड़कियाँ नहीं
आँखों के आगे धरती भी
न जाने कब से घूमी नहीं
न ही दिन को तारे दिखते हैं
अब नींद में डरके उठती नहीं
नन्हीं सी एक आहट पर 
अब दिल जाता है सिमट नहीं
लोगों से नज़र मिलाने में
अब होती कोई झिझक नहीं
अक्कड़ बक्कड़ से खेल हैं अब
न सही जो टूटे खिलौने नहीं
चेहरों पे हमारे शरारत है
उँगलियों के तेरी, निशान नहीं
सामान बिक गया सारा पर
घर भरा-भरा सा लगता है
भर पेट न चाहे खाया हो
मन हरा भरा सा रहता है।


बसंत


स्वर्णिम धूप, हरा मैदान
      पीली सरसों हुई जवान
              चुस्त हुआ, रंगों में नहा
                   लो देखो वयस्क हुआ उद्यान
झील में हैं कुछ श्वेत कमल
        या बादल नभ पर रहे टहल
                     मृदु गान से कोयल के मोहित
                                हैं नाच रहे मोरों के दल
यूँ पवन की छेड़ाछेड़ी से
            उद्विग्न हैं कालियाँ
                      फूलों का पा संरक्षण 
                                निश्चिंत हैं कालियाँ
फूलों से चहुं ओर घिरे
          भौंरे जैसे मद पान किए
                ख़याल तेरा भी भंग पिए
                              आया बसंत को संग लिए

मलबा


लगता है ये रौरव नर्क मुझे
हो रहा है तांडव अग्नि का
यह किसका हाथ
वह किसका पाँव
यह धूलधूसरित सिर
किसका
क्या इस कपाल के पिता हो तुम
बोलो इस धड़ की माँ है कौन
क्यूँ गले लगाते अपने नहीं
क्या सूँघ साँप कर गया मौन
इक जली हुई अँगुली में अँगूठी
किसी को तन्हा छोड़ गई है
किसी के जीवन की धारा का
सदा को रुख़ यह मोड़ गई है
इक युवती का डिज़ाइनर पर्स
निज होगा कभी, अब बिखरा पड़ा है
पाउडर, रूज और लिपस्टिक को
काजल ने अब हथिया लिया है
ख़ासा महँगा किसी का जूता
धुएँ में लिपटा उल्टा पड़ा है
बहुत ही जल्दी में वो होगा
नंगे पाँव जो चला गया है।

कसक


इधर भागी, उधर भागी
उछली कूदी, लपकी, लाँघी
काँपी, तड़पी, उलटी, पलटी
कटी पूँछ मरी औंधी
बेबस और बेकल छिपकली
कर्मों को अपने रोती रही

ज़ख़्म भर गया जल्दी ही
न और उसे कुछ याद रहा
न तो दर्द
न ही कोई सदमा
खालीपन था 

कुछ लमहों का
मन को जब समझा उसने लिया
तो निकल आई इक पूँछ नई
छोटी, मोटी बेहद भद्दी

कर्मों का रोना छोड़
हड़पती है वह अब नित
कीड़े मकौड़े ढेर कि
जाए उसकी कसक मिट


दिव्या माथुर




  • दिव्या माथुर का जन्म दिल्ली में हुआ और वहाँ से एम.ए. (अँग्रेज़ी) करने के पश्चात दिल्ली व ग्लास्गो से पत्रकारिता का डिप्लोमा किया। चिकित्सा-आशुलिपि का स्वतंत्र अध्ययन भी किया। 1985 में आप भारतीय उच्चायोग से जुड़ीं और 1992 से नेहरु केंद्र में वरिष्ठ कार्यक्रम अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं। उनका लंदन के सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन में अपूर्व योगदान रहा है। रॉयल सोसाइटी ऑफ़ आर्ट्‌स की फ़ेलो हैं। नेत्रहीनता से सम्बन्धित कई संस्थाओं में इनका अभूतपूर्व योगदान रहा है। इसी विषय पर इनकी कहानियाँ और कविताएँ ब्रेल लिपि में प्रकाशित हो चुकीं हैं। आशा फ़ाउँडेशन और ‘पेन’ संस्थाओं की संस्थापक-सदस्य, चार्नवुड, आर्ट्‌स की सलाहकार, यू. के. हिंदी समिति की उपाध्यक्ष, भारत सरकार के आधीन, लंदन के उच्चायोग की हिंदी कार्यकारिणी समिति की सदस्या, कथा यू. के. की पूर्व अध्यक्ष और अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन की सांस्कृतिक अध्यक्ष, दिव्या जी कई पत्र, पत्रिकाओं के सम्पादक मंडल में शामिल हैं। अंत:सलिला, रेत का लिखा, ख्याल तेरा और 11 सितम्बर: सपनों की राख तले (कविता संग्रह)। आक्रोश (कहानी संग्रह-प्रो. स्टुअर्ट मैक्ग्रेगर द्वारा विमोचित एवं पद्मानंद साहित्य सम्मान द्वारा सम्मानित), ओडेस्सी: स्टोरीज़ बाई इंडियन वुमैन राईटरज़ सेटलड एबरॉड (अंग्रेज़ी में संपादन, डा. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी द्वारा विमोचित) एवं आशा: स्टोरीज़ बाई इंडियन वुमैन राईटरज़ (अँग्रेज़ी में संपादन, साराह माईल्स द्वारा विमोचित) शीघ्र प्रकाश्य : ‘एक शाम भर बातें’ एवं ‘जीवन हा! मृत्यु‘। उनकी कहानियाँ और कविताएँ भिन्न भाषाओं के संकलनों में शामिल की गई हैं। आक्रोश, ओडेस्सी (सईद जाफरी द्वारा विमोचित) एवं आशा- तीनों संग्रहों के पेपरबैक संस्करण आ चुके हैं। जहाँ पॉल रौबसन द्वारा प्रस्तुत दिव्या माथुर के नाटक 'टेट-ए-टेट' की भूरि-भूरि प्रशंसा हुई, वहीं उनकी दो अन्य कहानियों - ‘एक शाम भर बातें’ एवं ‘अपूर्व दिशा’ का भी सफल मंचन हो चुका है। रेडियो एवं दूरदर्शन पर इनके कार्यक्रम के नियमित प्रसारण के अतिरिक्त, इनकी कविताओं को कला संगम संस्था ने भारतीय नृत्य शैलियों के माध्यम से सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया।
  • राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा सम्मानित एवं निमंत्रित, दिव्या जी को Arts Achiever-2003 Award (Arts Council of England), Indivi™als of Inspiration and Dedication ह्मonour (Chinmoy Mission) एवं संस्कृति सेवा सम्मान से अलंकृत किया जा चुका है।
  • लंदन में कहानियों के मंचन की शुरुआत का सेहरा भी आपके सिर जाता है। रीना भारद्वाज, कविता सेठ और सतनाम सिंह सरीखे विशिष्ठ संगीतज्ञों ने इनके गीत और ग़ज़लों को न केवल संगीतबद्ध किया, अपना स्वर भी दिया है।
  • सम्पर्क : DivyaMathur@aol.com


पुस्तक समीक्षा: कविता के गर्भ से-अरुण देव




                                  

                             आज हमारे बीच भर गई हैं खामोशियाँ..


कविता मनुष्यता की मातृभाषा है. कविता में ही वह अपने सुख-दुःख, यातनाएं, अनुभव दर्ज़ करता आया है. सामाजिक जटिलता बढ़ने से कवि-कर्म कठिन हुआ है. इसमें अब श्वेत-श्याम अनुभव नहीं होते. इसमें बहुत कुछ ‘ग्रे’ होता है. जिसे समझना धैर्य के साथ ही संभव है. दीर्घ परंपरा के कारण कविता में कुछ भी कहना भी बड़ी तैयारी की मांग करता है. जिस परंपरा में कालिदास, कबीर, ग़ालिब, प्रसाद और मुक्तिबोध हुए हों, जिसमें केदारनाथ सिंह और विष्णु खरे लिख रहे हों, उसमें कुछ भी अलहदा लिखना और अपनी पहचान सुनिश्चित करना आसान नहीं है. 

युवा कवि कुमार लव का पहला कविता संग्रह – ‘गर्भ में’ मेरे सामने हैं. कविताएँ 6  खंडों में विभक्त हैं. एक ही संग्रह में कविताओं के लिए 6 अलग-अलग खंड ऐसा संकेत करते हैं कि कवि अपने को अनुभवों में इतना विस्तृत पाता है कि उसे किसी एक शीर्षक में नहीं बाधा जा सकता. हालांकि कई बार ऐसे विभाजन एक रेटारिक की तरह लगते हैं और ऊब पैदा करते हैं. हिंदी कविता में प्रयोगशीलता की भी एक परंपरा है ओर प्रयोग के लिए भी परंपरा में दक्ष होना होता है. परंपराभंजक परंपराओं के साधक होते हैं.   

‘विसंवादी’ खंड के अंतर्गत ‘खामोशियाँ’ में कवि की कोशिशें रंग लाती हैं और ऐसा लगता है कि इसमें काव्याभास से आगे बढ़कर कुछ कहा गया है और सलीके से कहा गया है- 

“कभी हमें घेरे खड़ी थीं
आज हमारे बीच भर गई हैं
खामोशियाँ”

शब्दों का शूल बनना, शोर बनना और फिर अर्थहीन हो जाना अर्थगर्भित है. इसी खंड की अगली कविता भी सुखद अहसास है जब कवि सधे शिल्प में आज के क्षण-जीवी दर्शन को व्यक्त करता है-

‘पर,
पूर्णता 
एक क्षण से ज्यादा
कहाँ रहती है ?’ 

जटिल यांत्रिकता ने सहज मानवीयता के लिए जगहें नहीं छोड़ी हैं. एक सच्चा सीधा प्रेम भी अब सीधे ढंग से अभिव्यक्त नहीं हो सकता. शब्दों को दीमक लग गई है. कवि कहता है –

‘पर अब भी
चाहता हूँ थामना 
तुम्हारा हाथ,
छूना तुम्हारा मन,
कहना फिर से ..’

कविता की विश्वसनीयता के लिए यह जरूरी है कि वह कवि के जीवनानुभवों से निकले और फिर शिल्प में ढल जाए.प्रेम से संबंधित कविताओं में सच्चाई की एक महक है जो बरबस ध्यान खींचती हैं

‘प्रतीक्षा
तुम्हारे कमल से उठती
गंध की’

संवेदनशील मन अपने को ‘अनफिट’ पाता है तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं. ‘एलिनियेशन’ इस सभ्यता की सबसे बड़ी बीमारी है. उत्पाद से उत्पादक का अपरिचय बढ़ते-बढ़ते हमारे संबंधों में घुस जाता है. और कई बार तो हम खुद से अपरिचित हो जाते हैं. प्रचार माध्यमों का दबाव एक नितांत ही बनावटी जीवनशैली के लिए बाध्य करता है. इसका बोझ सहन करते-करते आत्मा बीमार पड़ जाती है. कवि ईश्वर से कहता है-

‘ईश्वर,
गलती हो गई आपसे
दुनिया बनाई मेरे लिए
पर गलत नाप की’

कुछ कविताओं में बिंबों का प्रयोग सुंदर है और प्रभावशाली भी. ‘हे राम’ शीर्षक कविता में कवि कहता है-

‘शायद भूल गए हैं वे पिछले संग्राम
जिनमें खून बरसा था
गहरी नींद में सोए शहरों पर’ 

कुछ आकार में छोटी कविताएँ सुघड़ हैं और मन में बसी रह जाती हैं- 

‘कुछ भीगे ख्वाब थे
बिछाए थे सुखाने के लिए
कमरे भर में सीलन भर गई.’ 

डॉ देवराज के शब्दों में कहा जाए तो कविता में प्रयोगों की लाक्षणिकता के गहरे अर्थ हैं. कविताओं के चयन में और सावधानी की दरकार थी.

  • समीक्षित कृति : ‘गर्भ में’ / कुमार लव/ 2015/
  • तक्षशिला प्रकाशन, 98-ए, हिंदी पार्क, 
  • दरियागंज, नई दिल्ली - 110002/ 
  • पृष्ठ – 136/ मूल्य – रु. 300/- 

सोमवार, 18 जनवरी 2016

कुछ कविताएं काव्यकृति ‘सरहदें’ से-सुबोध श्रीवास्तव



विनोद शाही की कलाकृति


उसे आना ही है...


खोल दो
बंद दरवाजे/ खिड़कियां
मुग्ध न हो/ न हो प्रफुल्लित
जादू जगाते
दीपक के आलोक से।
निकलो
देहरी के उस पार
वंदन-अभिनंदन में
श्वेत अश्वों के रथ पर सवार
नवजात सूर्य के।
वो देखो-
चहचहाने लगे पंछी
सतरंगी हो उठीं दिशाएं
हां, सचमुच
कालिमा के बाद
आना ही है/ उसे
रश्मियां बिखेरकर
आल्हादित करने
विश्व क्षितिज को..!


जब, एक दिन


वहां, जहां खड़ा है
वह वृक्षमानव
आसपास बसती है
एक समूची दुनिया।
वृक्षमानव
बखूबी जानता है कि
कल, जब वह
जी भी नहीं पाया होगा
अपनी पूरी उम्र,
बांट न पाया होगा
सबको
ठंडी छांव,
सुन नहीं पाया होगा
जीभरकर किलकारियां
अपनी शाखों पर
इधर-उधर
नटखट बंदरों से झूलते
बच्चों की,
तभी-
उसके ही जिस्म के
एक हिस्से में जड़ी
कुल्हाड़ी थामे
कई जोड़ा हाथ
क्षण भर में मिटा देंगे
उसका अस्तित्व।
फिर कोई कारीगर
उसके शरीर को
कई हिस्सों में बांटकर
बनाएगा
आधुनिक शैली में
फर्नीचर के उत्कृष्ट नमूने-
जिन पे बैठकर बनेंगी
पर्यावरण रक्षा की
अनेक योजनाएं।
फिर भी वह
विस्मृत नहीं कर पाता
आदमियत के साथ अपना रिश्ता
क्योंकि-
वह यह भी जानता है कि
आधुनिकता की दौड़ में
बदहवास सा भागता आदमी
जब हर कहीं मिटा चुका होगा
हरियाली का अस्तित्व
किसा रोज/शाम को
कंकरीट के जंगल से उकताकर
वापस लौटने पर
उसका बच्चा
रोपता मिलेगा/एक नन्हा पौधा
तब उसे, अचानक याद आयेगा
बचपन में-
खुद का पेड़ों पर झूलना
और वह
सहमे से बच्चे को
पुचकार कर उठा लेगा गोद में।


वर्षा: एक शब्दचित्र


गली के नुक्कड़ पे 
बारिश की रिमझिम के बाद 
उस छोर से आती 
छोटी सी नदी में 
छपाक-छपाक करते 
अधनंगे बच्चे,
डगमगाकर आतीं 
कागज़ की छोटी-छोटी कश्तियां
पल भर को ताजा कर गईं
स्मृतियां-
घर/बचपन की।
घर और बचपन
दोनों ही पर्यायवाची शब्द हैं
अस्थायित्व के 
बचपन-
हमेशा पास नहीं रहता
सरक जाता है घुटनों के बल
जाने कब?
और घर भी 
हमेशा 'घर' होने का एहसास
नहीं दिलाता 
हर किसी को।


आज भी


आज फिर
मचल गया
देहरी पे पांव रखता
नन्हा बच्चा।
एक पल ठिठक कर
कल मिली
पिता की डांट याद करता है
फिर, हौले से पुचकार कर
ज़मीन पे रेंगते
जहरीले कीड़े को-
सूखे पेड़ के सुपुर्द करते हुए
क्लास में
टीचर के पढ़ाए सबक को
कार्यरूप देता है।
बच्चा/कीड़ा/पेड़
तीनों-
एक दूसरे के कोई नहीं
शायद इसीलिए
अब भी सांस ले रही है
मानवता..!


उम्मीद का दायरा


जहां खत्म होता है
उम्मीद का दायरा
वहीं से करो/ तुम
इक नई शुरुआत।
याद रखना-
हर शुरुआत
लबरेज़ होती है
ताज़ातरीन उम्मीदों से
जिसमें/ नाउम्मीदी की
कोई गुंजाईश नहीं होती
और
उम्मीद पे
दुनिया कायम है..!
(रचनाएं काव्य संग्रह 'सरहदें' से)

सुबोध श्रीवास्तव


'माडर्न विला', 10/518,
खलासी लाइन्स,कानपुर (उप्र)-208001.
मो.09305540745
ई-मेल: subodhsrivastava85@yahoo.in



सुबोध श्रीवास्तव


  • जन्म: 4 सितम्बर, 1966 (कानपुर)
  • मां: श्रीमती कमला श्रीवास्तव
  • पिता: स्व.श्री प्रेम नारायण दीवान
  • शिक्षा: परास्नातक
  • व्यवसाय: पत्रकारिता (वर्ष 1986 से)। 'दैनिक भास्कर', 'स्वतंत्र भारत' (कानपुर/लखनऊ) आदि में विभिन्न पदों पर कार्य।
  • विधाएं: नई कविता, गीत, गजल, दोहे, मुक्तक, कहानी, व्यंग्य, निबंध, रिपोर्ताज और बाल साहित्य। रचनाएं देश-विदेश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं,प्रमुख अंतरजाल पत्रिकाओं में प्रकाशित। दूरदर्शन/आकाशवाणी से प्रसारण भी।
  • प्रकाशित कृतियां:
  • 'पीढ़ी का दर्द' (काव्य संग्रह)
  • 'ईष्र्या' (लघुकथा संग्रह)
  • 'शेरनी मां' (बाल कथा संग्रह)
  • 'सरहदें' (काव्य संग्रह)
  • विशेष: काव्यकृति 'पीढ़ी का दर्द' के लिए उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा पुरस्कृत।
  • साहित्य/पत्रकारिता के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा 'गणेश शंकर विद्यार्थी अतिविशिष्ट सम्मान'।
  • कई अन्य संस्थाओं से भी सम्मानित।
  • संपादन: 'काव्ययुग' ई-पत्रिका
  • संप्रति: 'आज' (हिन्दी दैनिक), कानपुर में कार्यरत।
  • संपर्क: 'माडर्न विला',10/518, खलासी लाइन्स, कानपुर (उ.प्र.)-208001, उत्तर प्रदेश (भारत)।
  • मोबाइल: 09305540745/9839364419
  • फेसबुक:www.facebook.com/subodhsrivastava85
  • ट्विटर:www.twitter.com/subodhsrivasta3
  • ई-मेल: subodhsrivastava85@yahoo.in





  • पुस्तक-सरहदें/ कविता संग्रह
  • कवि-सुबोध श्रीवास्तव
  • पृष्ठ-96
  • मूल्य-120 रुपये 
  • बाईंडिंग-पेपरबैक
  • प्रकाशक-अंजुमन प्रकाशन, 
  • 942 मुट्ठीगंज, इलाहाबाद, 
  • उत्तर प्रदेश (भारत)
  • मोबाइल: +91-9453004398
  • ISBN12: 9789383969722
  • ISBN10: 9383969722
  • http://www.anjumanpublication.com