सोमवार, 7 मार्च 2016

मैं ब्रह्मा हूँ एवं अन्य कविताएं-दिव्या माथुर


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


मैं ब्रह्मा हूँ



मैं ब्रह्मा हूँ
ये सारा ब्रह्मांड
मेरी ही कोख से जन्मा है
पाला है इसे मैंने
ढेर सा प्यार-दुलार देकर
और ये मेरे ही जाए
मेरी ही गोद का
बँटवारा करने पर तुले हैं
चिंदी चिंदी कर डाला है
मेरा आँचल
युद्ध चल रहा है 
मेरी ही गोद में
ग़रीबों को कुचल रहें हैं अमीर
कमज़ोरों को धमका रहे हैं बलशाली
मैं किसके संग रहूँ
या किसको सही कहूँ
जिसको भी समझाना चाहूँ
वह ही विरुद्ध हो जाता है
’बहकावे में आ जाती हूँ’
मुझपर इल्ज़ाम लगाता है
एक दिन मुझसे जगह पलटें
ता जानेंगे दुविधा माँ की
क्या सह पायेंगे पल भर भी
सतत वे पीड़ा ब्रह्मा की?


तेरे जाने के बाद..


जब तुम घर आते थे शाम को
दिल की धड़कन थम जाती थी
झट दौड़ के मुन्नी कमरे के
किसी कोने में छिप जाती थी
टूटे फूटे अब दरवाज़े
चौखट तो है खिड़कियाँ नहीं
टेढ़े मेढ़े बर्तन हैं बचे
मार नहीं झिड़कियाँ नहीं
आँखों के आगे धरती भी
न जाने कब से घूमी नहीं
न ही दिन को तारे दिखते हैं
अब नींद में डरके उठती नहीं
नन्हीं सी एक आहट पर 
अब दिल जाता है सिमट नहीं
लोगों से नज़र मिलाने में
अब होती कोई झिझक नहीं
अक्कड़ बक्कड़ से खेल हैं अब
न सही जो टूटे खिलौने नहीं
चेहरों पे हमारे शरारत है
उँगलियों के तेरी, निशान नहीं
सामान बिक गया सारा पर
घर भरा-भरा सा लगता है
भर पेट न चाहे खाया हो
मन हरा भरा सा रहता है।


बसंत


स्वर्णिम धूप, हरा मैदान
      पीली सरसों हुई जवान
              चुस्त हुआ, रंगों में नहा
                   लो देखो वयस्क हुआ उद्यान
झील में हैं कुछ श्वेत कमल
        या बादल नभ पर रहे टहल
                     मृदु गान से कोयल के मोहित
                                हैं नाच रहे मोरों के दल
यूँ पवन की छेड़ाछेड़ी से
            उद्विग्न हैं कालियाँ
                      फूलों का पा संरक्षण 
                                निश्चिंत हैं कालियाँ
फूलों से चहुं ओर घिरे
          भौंरे जैसे मद पान किए
                ख़याल तेरा भी भंग पिए
                              आया बसंत को संग लिए

मलबा


लगता है ये रौरव नर्क मुझे
हो रहा है तांडव अग्नि का
यह किसका हाथ
वह किसका पाँव
यह धूलधूसरित सिर
किसका
क्या इस कपाल के पिता हो तुम
बोलो इस धड़ की माँ है कौन
क्यूँ गले लगाते अपने नहीं
क्या सूँघ साँप कर गया मौन
इक जली हुई अँगुली में अँगूठी
किसी को तन्हा छोड़ गई है
किसी के जीवन की धारा का
सदा को रुख़ यह मोड़ गई है
इक युवती का डिज़ाइनर पर्स
निज होगा कभी, अब बिखरा पड़ा है
पाउडर, रूज और लिपस्टिक को
काजल ने अब हथिया लिया है
ख़ासा महँगा किसी का जूता
धुएँ में लिपटा उल्टा पड़ा है
बहुत ही जल्दी में वो होगा
नंगे पाँव जो चला गया है।

कसक


इधर भागी, उधर भागी
उछली कूदी, लपकी, लाँघी
काँपी, तड़पी, उलटी, पलटी
कटी पूँछ मरी औंधी
बेबस और बेकल छिपकली
कर्मों को अपने रोती रही

ज़ख़्म भर गया जल्दी ही
न और उसे कुछ याद रहा
न तो दर्द
न ही कोई सदमा
खालीपन था 

कुछ लमहों का
मन को जब समझा उसने लिया
तो निकल आई इक पूँछ नई
छोटी, मोटी बेहद भद्दी

कर्मों का रोना छोड़
हड़पती है वह अब नित
कीड़े मकौड़े ढेर कि
जाए उसकी कसक मिट


दिव्या माथुर




  • दिव्या माथुर का जन्म दिल्ली में हुआ और वहाँ से एम.ए. (अँग्रेज़ी) करने के पश्चात दिल्ली व ग्लास्गो से पत्रकारिता का डिप्लोमा किया। चिकित्सा-आशुलिपि का स्वतंत्र अध्ययन भी किया। 1985 में आप भारतीय उच्चायोग से जुड़ीं और 1992 से नेहरु केंद्र में वरिष्ठ कार्यक्रम अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं। उनका लंदन के सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन में अपूर्व योगदान रहा है। रॉयल सोसाइटी ऑफ़ आर्ट्‌स की फ़ेलो हैं। नेत्रहीनता से सम्बन्धित कई संस्थाओं में इनका अभूतपूर्व योगदान रहा है। इसी विषय पर इनकी कहानियाँ और कविताएँ ब्रेल लिपि में प्रकाशित हो चुकीं हैं। आशा फ़ाउँडेशन और ‘पेन’ संस्थाओं की संस्थापक-सदस्य, चार्नवुड, आर्ट्‌स की सलाहकार, यू. के. हिंदी समिति की उपाध्यक्ष, भारत सरकार के आधीन, लंदन के उच्चायोग की हिंदी कार्यकारिणी समिति की सदस्या, कथा यू. के. की पूर्व अध्यक्ष और अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन की सांस्कृतिक अध्यक्ष, दिव्या जी कई पत्र, पत्रिकाओं के सम्पादक मंडल में शामिल हैं। अंत:सलिला, रेत का लिखा, ख्याल तेरा और 11 सितम्बर: सपनों की राख तले (कविता संग्रह)। आक्रोश (कहानी संग्रह-प्रो. स्टुअर्ट मैक्ग्रेगर द्वारा विमोचित एवं पद्मानंद साहित्य सम्मान द्वारा सम्मानित), ओडेस्सी: स्टोरीज़ बाई इंडियन वुमैन राईटरज़ सेटलड एबरॉड (अंग्रेज़ी में संपादन, डा. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी द्वारा विमोचित) एवं आशा: स्टोरीज़ बाई इंडियन वुमैन राईटरज़ (अँग्रेज़ी में संपादन, साराह माईल्स द्वारा विमोचित) शीघ्र प्रकाश्य : ‘एक शाम भर बातें’ एवं ‘जीवन हा! मृत्यु‘। उनकी कहानियाँ और कविताएँ भिन्न भाषाओं के संकलनों में शामिल की गई हैं। आक्रोश, ओडेस्सी (सईद जाफरी द्वारा विमोचित) एवं आशा- तीनों संग्रहों के पेपरबैक संस्करण आ चुके हैं। जहाँ पॉल रौबसन द्वारा प्रस्तुत दिव्या माथुर के नाटक 'टेट-ए-टेट' की भूरि-भूरि प्रशंसा हुई, वहीं उनकी दो अन्य कहानियों - ‘एक शाम भर बातें’ एवं ‘अपूर्व दिशा’ का भी सफल मंचन हो चुका है। रेडियो एवं दूरदर्शन पर इनके कार्यक्रम के नियमित प्रसारण के अतिरिक्त, इनकी कविताओं को कला संगम संस्था ने भारतीय नृत्य शैलियों के माध्यम से सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया।
  • राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा सम्मानित एवं निमंत्रित, दिव्या जी को Arts Achiever-2003 Award (Arts Council of England), Indivi™als of Inspiration and Dedication ह्मonour (Chinmoy Mission) एवं संस्कृति सेवा सम्मान से अलंकृत किया जा चुका है।
  • लंदन में कहानियों के मंचन की शुरुआत का सेहरा भी आपके सिर जाता है। रीना भारद्वाज, कविता सेठ और सतनाम सिंह सरीखे विशिष्ठ संगीतज्ञों ने इनके गीत और ग़ज़लों को न केवल संगीतबद्ध किया, अपना स्वर भी दिया है।
  • सम्पर्क : DivyaMathur@aol.com


पुस्तक समीक्षा: कविता के गर्भ से-अरुण देव




                                  

                             आज हमारे बीच भर गई हैं खामोशियाँ..


कविता मनुष्यता की मातृभाषा है. कविता में ही वह अपने सुख-दुःख, यातनाएं, अनुभव दर्ज़ करता आया है. सामाजिक जटिलता बढ़ने से कवि-कर्म कठिन हुआ है. इसमें अब श्वेत-श्याम अनुभव नहीं होते. इसमें बहुत कुछ ‘ग्रे’ होता है. जिसे समझना धैर्य के साथ ही संभव है. दीर्घ परंपरा के कारण कविता में कुछ भी कहना भी बड़ी तैयारी की मांग करता है. जिस परंपरा में कालिदास, कबीर, ग़ालिब, प्रसाद और मुक्तिबोध हुए हों, जिसमें केदारनाथ सिंह और विष्णु खरे लिख रहे हों, उसमें कुछ भी अलहदा लिखना और अपनी पहचान सुनिश्चित करना आसान नहीं है. 

युवा कवि कुमार लव का पहला कविता संग्रह – ‘गर्भ में’ मेरे सामने हैं. कविताएँ 6  खंडों में विभक्त हैं. एक ही संग्रह में कविताओं के लिए 6 अलग-अलग खंड ऐसा संकेत करते हैं कि कवि अपने को अनुभवों में इतना विस्तृत पाता है कि उसे किसी एक शीर्षक में नहीं बाधा जा सकता. हालांकि कई बार ऐसे विभाजन एक रेटारिक की तरह लगते हैं और ऊब पैदा करते हैं. हिंदी कविता में प्रयोगशीलता की भी एक परंपरा है ओर प्रयोग के लिए भी परंपरा में दक्ष होना होता है. परंपराभंजक परंपराओं के साधक होते हैं.   

‘विसंवादी’ खंड के अंतर्गत ‘खामोशियाँ’ में कवि की कोशिशें रंग लाती हैं और ऐसा लगता है कि इसमें काव्याभास से आगे बढ़कर कुछ कहा गया है और सलीके से कहा गया है- 

“कभी हमें घेरे खड़ी थीं
आज हमारे बीच भर गई हैं
खामोशियाँ”

शब्दों का शूल बनना, शोर बनना और फिर अर्थहीन हो जाना अर्थगर्भित है. इसी खंड की अगली कविता भी सुखद अहसास है जब कवि सधे शिल्प में आज के क्षण-जीवी दर्शन को व्यक्त करता है-

‘पर,
पूर्णता 
एक क्षण से ज्यादा
कहाँ रहती है ?’ 

जटिल यांत्रिकता ने सहज मानवीयता के लिए जगहें नहीं छोड़ी हैं. एक सच्चा सीधा प्रेम भी अब सीधे ढंग से अभिव्यक्त नहीं हो सकता. शब्दों को दीमक लग गई है. कवि कहता है –

‘पर अब भी
चाहता हूँ थामना 
तुम्हारा हाथ,
छूना तुम्हारा मन,
कहना फिर से ..’

कविता की विश्वसनीयता के लिए यह जरूरी है कि वह कवि के जीवनानुभवों से निकले और फिर शिल्प में ढल जाए.प्रेम से संबंधित कविताओं में सच्चाई की एक महक है जो बरबस ध्यान खींचती हैं

‘प्रतीक्षा
तुम्हारे कमल से उठती
गंध की’

संवेदनशील मन अपने को ‘अनफिट’ पाता है तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं. ‘एलिनियेशन’ इस सभ्यता की सबसे बड़ी बीमारी है. उत्पाद से उत्पादक का अपरिचय बढ़ते-बढ़ते हमारे संबंधों में घुस जाता है. और कई बार तो हम खुद से अपरिचित हो जाते हैं. प्रचार माध्यमों का दबाव एक नितांत ही बनावटी जीवनशैली के लिए बाध्य करता है. इसका बोझ सहन करते-करते आत्मा बीमार पड़ जाती है. कवि ईश्वर से कहता है-

‘ईश्वर,
गलती हो गई आपसे
दुनिया बनाई मेरे लिए
पर गलत नाप की’

कुछ कविताओं में बिंबों का प्रयोग सुंदर है और प्रभावशाली भी. ‘हे राम’ शीर्षक कविता में कवि कहता है-

‘शायद भूल गए हैं वे पिछले संग्राम
जिनमें खून बरसा था
गहरी नींद में सोए शहरों पर’ 

कुछ आकार में छोटी कविताएँ सुघड़ हैं और मन में बसी रह जाती हैं- 

‘कुछ भीगे ख्वाब थे
बिछाए थे सुखाने के लिए
कमरे भर में सीलन भर गई.’ 

डॉ देवराज के शब्दों में कहा जाए तो कविता में प्रयोगों की लाक्षणिकता के गहरे अर्थ हैं. कविताओं के चयन में और सावधानी की दरकार थी.

  • समीक्षित कृति : ‘गर्भ में’ / कुमार लव/ 2015/
  • तक्षशिला प्रकाशन, 98-ए, हिंदी पार्क, 
  • दरियागंज, नई दिल्ली - 110002/ 
  • पृष्ठ – 136/ मूल्य – रु. 300/-